नई पुस्तकें >> वंशज वंशजमृदुला गर्ग
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"जोर आजमाइश करेगी?" सुधीर ने रेवा से पूछा।
"वो क्या होता है ?" रेवा ने मासूमियत से कहा। . "यह देख, मेरे हाथ में रस्सी है न, इसका एक सिरा तू पकड़ ले, एक मैं। खूब जोर लगाकर खींचना। जो अपनी तरफ खींच लेगा वो जीतेगा। ठीक ?"
"मैं जीती तो क्या मिलेगा?" . "जो जीतेगा, वो हारने वाले को एक चूंसा मारेगा।" "नहीं, मैं नहीं,.तुम्हारा बडा जोर लगता है।" "अच्छा चल, तू जीती तो दस मार लियो, मैं जीता तो एक।"
"नहीं, मैं नहीं।" .. "डरपोक, सुधीर ने चिढ़ाकर कहा ।
"मैं डरपोक नहीं हूँ।"
"हई। डरपोक । कमजोर । सीख-सलाई।" ..
"तुम होगे सीख-सलाई," रेवा ने पलटकर कहा तो सुधीर बोला, "तुझे खेलना है तो खेल, नहीं तो मैं चला वाहर ।"
"खेलना है, खेलना है !" चिल्लाकर रेवा ने फौरन उसे रोक लिया। .. 'सुधीर चला गया तो और उससे खेलना नहीं मिल पाएगा।
"तब ले पकड़ रस्सी," उसने अपने हाथ की रस्सी का सिरा उसे . पकड़ा दिया।
वह अपनी पूरी ताकत के साथ रस्सी का सिरा थामे रही पर रस्सा कशी का जो नतीजा हो सकता था वही हुआ। पल-भर में दस वर्ष के हृष्ट-पुष्ट सुधीर ने छः वर्ष की नाजुक रेवा को रस्सी समेत पास खींच लिया। वह सीधा आकर उसकी छाती से टकरा गई। .. .. "अब मारूं घूँसा ?" सुधीर ने हंसते-हंसते एक हाथ की मुट्ठी तानकर कहा।
उसका खयाल था कि यह सुनते ही वह सरपट वहां से भाग खड़ी होगी और वह देर तक उसका पीछा करके बार-बार मारने की धमकी .. देकर उसे छकाएगा। सचमुच मारने का इरादा उसका नहीं था। रेवा जैसे नाजुक इन्सान को मारकर रुलाने में मजा नहीं था। घूँसेबाजी का मजा था अपने हमउम्र, हमताकतवरों के साथ । हां, रेवा को छकाने में मना आता था। कमजोर इन्सान की भावात्मक ताकत के साथ, रेवा चील की तरह उस पर झपटी और उसके बदन पर घूँसे-पर-घूँसे जमाती हुई चीख-पुकार मचाने लगी, "हां, मारो-मारो! डाकू कहीं के ! रस्सी से मेरे हाथ छील दिए । डाकू-डाकू ! मारो ! और मारो!"
चीखती-चिल्लाती वह जोर से रो दी।
हक्का-बक्का सुधीर उसे देखता रह गया।
"अरे, तू पागल है क्या? मैंने क्या कहा तुझे?"
वह उसी तरह रोते-रोते कुछ कहने का प्रयास करती गई।
"डाकू: ऊं..ॐ...ॐ..'लड़ा 'का..आं...आं...आं...".
"अरे चुप । बुद्धू , क्या हुआ तेरे हाथ को ? अच्छा-भला तो है । चुप कर," सुधीर ने जरा ऊंची आवाज में कहा तो वह और जोर से चिल्लाने लगी।
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