रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी घर का भेदीसुरेन्द्र मोहन पाठक
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
"ठीक है।"
वो अपनी कार में सवार हुई और वहां से रुखसत हो गयी।
“काफी डेमोक्रेटिक मिजाज की लड़की है।"-पीछे सुनील बोला- "मुहब्बत को वोट
समझती है।"
“वोट!"-अर्जुन सकपकाया सा बोला।
"जो किसी को दिया तो सार्थक, पास रखा तो बेकार।"
"ओह!"
"चली गयी तो ध्यान आया। हमें पूछना चाहिये था कि इसका जन्म दिन कब होता है!"
"मैं मालूम कर लूंगा।"
“करना, लेकिन इसी से पूछ कर मालूम न करना। किसी और जरिये से पता लगाना।"
"ठीक है।"
"अब तेरा मेरा साथ इस सड़क से सिरे तक का ही है।"
“आप कहां जायेंगे?"
"कई जगह जाऊंगा। उनमें से कहीं भी इकट्ठे जाने का कोई फायदा नहीं। रात को यूथ
क्लब में आना। वहां नोट्स एक्सचेंज करेंगे कि तूने क्या किया और मैंने क्या
किया?"
"हुक्म क्या है मेरे लिये?"
"उस लेखक के घोड़े की कोई जन्म पत्री बांच। मालूम कर कि वो कैसा आदमी है और
इतना मशहूर लेखक कैसे बन गया?"
"और?"
“और सात बजे लिंक रोड के श्मशान घाट पर पहुंचना।"
"मकतूल का क्रियाकर्म कवर करने?"
"हां"
"और?"
"और रात को। अभी इतना ही कर।"
"ठीक है।"
फिर दोनों वापिस मोटरसाइकल पर सवार हो गये।
सुनील रौनक बाजार पहुंचा।
वहां नेशनल बैंक तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई।
अलबत्ता बैंक की पब्लिक डीलिंग्स का टाइम खत्म हो चुका होने की वजह से भीतर
दाखिला पाने में काफी दिक्कत पेश आयी।। बड़ी कठिनाई से वो मैनेजर तक अपनी
पहुंच बना पाया।
लेकिन वो मोहनदास भाटिया न निकला।
"वो रिटायर हो गये हैं।"-नये मैनेजर ने बताया।
"अच्छा!”–सुनील बोला-“मुझे नहीं मालूम था कि वो इतने उम्रदराज आदमी थे।"
“अभी पचास के भी नहीं थे। स्वेच्छा से रिटायर हुए। वालंटियरी रिटायरमेंट ली।"
“मेरा उनसे मिलना बहुत जरूरी था। आप मुझे उनके घर का पता बता सकते हैं?"
मैनेजर ने बताया।
सुनील विवेक नगर, बताये पते पर पहुंचा।
भाटिया उसे एक निहायत मामूली, दो कमरों के किराये के - फ्लैट में रहता मिला ।
वो एक खिन्न, हलकान, टूटा हुआ आदमी निकला जिसकी बाबत उसे पहले ही न बताया गया
होता कि वो पचास का भी नहीं था तो सुनील सहज ही उसे साठ से भी ऊपर का मान
लेता। ऊपर से वो व्हीलचेयर का मोहताज निकला।
लिहाजा जहां तक कत्ल का सवाल था, वो बात उसके हक में थी। कोई कत्ल करने
व्हीलचेयर पर नेपियन हिल नहीं पहुंच सकता था।
सुनील ने उसे अपना परिचय दिया और फिर गोपनीयता की कसम उठा कर बड़ी मुश्किल से
उससे ये कुबुलवा पाया कि एक साल पहले उसने अपने बैंक से दस लाख रुपये का गबन
किय था जिसकी खबर पता नहीं कैसे उस नामुराद घर के भेदी का ल गयी थी जिसे कि
अपना मुंह आइन्दा बन्द रखने के लिये उस तीन लाख रुपये दिये थे। फिर उसने अपना
खुद का फ्लैट बेच कर बैंक की रकम वापिस बैंक में जमा कराई थी। लेकिन उसकी
तमाम सावधानियों के बावजूद उसकी पोल खुल गयी थी, नतीजतन इस तथ्य की रू में कि
बैंक का पैसा बैंक में वापिस जमा कराया जा चुका था, उसे ये हल्की सजा मिली थी
कि उसे नौकरी से जबरन रिटायर कर दिया गया था।
“रकम की मांग एक ही बार हुई थी?"
"हां।"
“और मांग करने वाला, कथित घर का भेदी, गोपाल बतरा था?"
"हां"
"मांग दोहराई न जाने की वजह?" . “मेरी पोल तो खुल ही गयी थी जिसकी सजा भी
मुझे मिल गयी थी। अब वो कोई मांग पेश करता तो किस बिना पर करता?"
"ठीक"
“ऊपर से वो कहता था कि वो फल देने वाले पेड़ को एक ही बार झिंझोड़ता था। कहता
था कि एक बार में जितने फल टपकें, वो उन्हीं से सन्तुष्टि कर लेता था।".
"क्या कहने! आपको मालूम हुआ कि कल रात गोपाल बतरा का कत्ल हो गया है?".
"नहीं।"
"क्यों? अखबार नहीं पढ़ते।"
“नहीं पढ़ता। मेरी निगाह में भी नुक्स है।"
"ओह!" .
"वैसे ये बात सच है तो मुझे दिली खुशी है कि वो कमीना अब इस दुनिया में नहीं
है। जरूर किसी पेड़ को दोबारा झिंझोड़ने का लालच कर बैठा होगा और फल की जगह
पेड़ ही ऊपर आ गिरा होगा।"
"कल रात आप कहां थे?"
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