रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी घर का भेदीसुरेन्द्र मोहन पाठक
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
तत्काल भावना ने टाइपशुदा कागजों वाला हाथ अपनी पीठ पीछे कर लिया।
लेखक के जबड़े भिंच गये, उसने सिगरेट एक तरफ फेंका और दृढ़ता से उसकी तरफ
बढ़ा।
सुनील उसके और भावना के बीच जा खड़ा हुआ।
"परे हटो।"-लेखक गुर्राया।
“आप बाज आयें।" -सुनील शान्ति से बोला।
“परे हटो वरना चोट खा जाओगे।"
“सागर साहब!" ---भावना आतंकित भाव से बोली- "प्लीज!"
"हटो।"-लेखक पूर्ववत गुर्राया।
“बचपना न दिखाइये, जनाब।”-सुनील भी पूर्ववत् शान्ति से बोला।
"मेरा हाथ उठ जायेगा।"-लेखक चेतावनीभरे स्वर में बोला।
"देखें, कहां तक उठता है?"
"ये मेरे और भावना के बीच की बात है इसलिये परे हटो।"
"आप परे हटिये।"
एकाएक लेखक का दायां हाथ हवा में घूमा। सुनील ने हवा में ही उसकी कलाई थाम
ली। लेखक ने कलाई छुड़ाने की हरचन्द कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका।
आखिरकार उसने अपना हाथ ढीला छोड़ दिया।
"जिम में लगाया गया वक्त जाया ही गया आपका।"-- सुनील उसकी कलाई को अपनी पकड़
से आजाद करता हुआ बोला-"जिस्म में जान तो न आयी।"
वो खामोश रहा, फिर एक हारे खिलाड़ी की तरह परे पड़े एक सोफे के करीब जाकर उस
पर ढेर हो गया।
सुनील ने भावना से दोनों कागज ले लिये। उसने ओरीजिनल को तह करके अपने कोट की
ऊपरी जेब में रख लिया और कार्बन कापी को वैसे ही अपने पर्स में रख लिया।
फिर वो दोनों वहां से रुखसत हो गये।
'निकल चेन' नाइट क्लब बीच रोड पर एक बहुत बड़े प्लाट के बीच में स्थापित थी
जहां कि संचिता की मारुति पर सवार होकर संचिता, सुनील और अर्जुन पहुंचे।
संचिता को 'निकल चेन' ले जाने के लिये जो लखनऊ वाया सहारनपुर वाला रास्ता
सुनील ने सोचा था, उसका सूत्रधार अर्जुन ही था। सुनील ने उसे इस बात के लिये
तैयार किया था कि वो रात को 'निकल चेन' चलने के लिये संचिता को राजी करे।
संचिता बिना किसी हील हुज्जत के फौरन राजी हो गयी थी।
अपने उस कदम के पीछे उसकी मंशा अपनी बहन का मुंह चिढ़ाना भी हो सकती थी।
अर्जुन इस खयाल से ही बल्लियों उछल रहा था कि इतनी फैंसी क्लब में उसका
ड्रिंक डिनर अश्योर्ड था।'
सौ रुपये पर हैड की एन्ट्रेंस फीस भर कर वे भीतर पहुंचे।
एक सफेद कोट और काली बो टाई वाले स्टीवार्ड ने उन्हें एक कोने की मेज पर
पहुंचाया। उन्होंने ड्रिंक्स का आर्डर दिया जो कि तुरन्त सर्व हुआ। सबने
चियर्स बोला।
क्लब की स्टेज पर बैंड बज रहा था जिसकी धुन पर एक अधनंगी लड़की कोई विलायती
गीत गा रही थी। लोगों की उसके गाने में उतनी दिलचस्पी नहीं दिखाई देती थी
जितनी कि उसके सांचे में ढले जिस्म में।
वैसे भी गाने का क्या था! वो तो रेडियो पर भी सुना जा सकता था। ..
यूं ही एक घंटा गुजरा। निरंजन चोपड़ा के दर्शन उन्हें न हुए।
“यहां की स्थापित रुटीन ये है" -संचिता बोली-"कि वो थोड़ी थोड़ी देर में हाल
का चक्कर लगाता है और परिचित मेहमानों को विश करके जाता है। अब तक तो उसके
हाल में तीन चक्कर .. लग चुके होने चाहिये थे। पता नहीं ऐसा क्यों नहीं हुआ?"
“क्लब में मौजूद नहीं होगा।"-अर्जुन ने राय पेश की।
"इस वक्त हमेशा होता है।"
"थोड़ी देर और इन्तजार करते हैं उसके खुद ही प्रकट होने का।"-सुनील बोला-“अभी
कोई ज्यादा वक्त नहीं हुआ है इसलिये....”
"गुरु जी!"-एकाएक अर्जुन बोला।
"क्या हुआ? कील चुभा कोई कुर्सी में से?"
"तानिया!"
"कहां है?"
अर्जुन ने एक तरफ इशारा किया।
सुनील को दरवाजे के करीब टाइट जीन और स्कीवी पहने एक लड़की दिखाई दी। उसके
बाल खुले हुए थे और अपने सिर पर एक लाल रंग की बड़ी फैशनेबल टोपी उसने बस
अटकाई हुई थी।
“वो लाल टोपी वाली?" -सुनील ने पूछा।
"हां!"
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