उपन्यास >> महाभोज महाभोजमन्नू भंडारी
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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है
आँख खोलकर दा साहब ने घड़ी देखी-नौ बज गए।
'अच्छा तो तुम पांडे को बोल दो, मीटिंग की तैयारी करवाएँ। होशियार आदमी है, स्थिति सँभालना जानता है।'
फिर उठते हुए बोले, जैसे अचानक याद आ गया हो, ‘और हाँ, जाओ तो ज़रा 'मशाल' के दफ्तर होते जाना। दत्ता बाबू ही नाम है न संपादक का ? कोई तीन-चार महीने पहले इंटरव्यू लेने के लिए समय माँगा था।...पर कहाँ था उन दिनों समय ? कहना, अब समय लेकर मिल लें किसी दिन मुझसे।'
फिर पास आए और बड़े स्नेह से लखन की पीठ पर हाथ रखकर बोले, 'लखन, आज का तुम्हारा आवेश देखकर अच्छा नहीं लगा मुझे। मेरे साथ चलना है तो भाई, ज़बान पर लगाम और व्यवहार में ठहराव चाहिए... समझे ?'
दा साहब यह बात केवल कहते ही नहीं, अमल में भी लाते हैं। उनके पूरे व्यक्तित्व में, उनकी हर बात और हर काम में जबरदस्त ठहराव है। और इस ठहराव की वजह से ही वे शायद कुर्सी पर भी ठहरे हुए हैं। वरना पिछले दस महीनों में विरोधियों ने और उनके अपने दल के असंतुष्ट लोगों ने जैसी-जैसी तिकड़में की हैं, कभी की कलामुंडी खा गए होते !
शहर का दूसरा महत्त्वपूर्ण कोना-सुकुल बाबू का निवास-स्थान। दस वर्ष तक मुख्यमंत्री रहे हैं सुकुल बाबू इस प्रांत के। बिना किसी बाधा-व्यवधान के। एकछत्र राज था उनका। कभी सोचा ही नहीं था कि दस वर्ष की लंबी अवधि ने जिस राज की नींव को एकदम पुख्ता कर दिया था वह एक झटके से ऐसे उखड़ जाएगा जैसे कोई जड़ें ही न हों उसकी। पर होनी बड़ी बलवान। यों सुकुल बाबू भी कम बलवान नहीं। सचमुच ऊँची चीज़ हैं। प्रांत के लोग दा साहब के पासंग पर रखते हैं सुकुल बाबू को। वैसे दा साहब की किसी भी बात से कोई समानता नहीं है सुकुल बाबू की। साँवला रंग, नाटा क़द। थोड़ा थुलथुल शरीर। दा साहब की तरह सौम्य-संयत भी नहीं। सुरा-सुंदरी से किसी तरह का कोई परहेज़ नहीं, बल्कि कहना चाहिए अनुरागी हैं दोनों के। जग के 'सकल पदारथ' न पानेवाले करम-हीनों में अपने को वे शमार नहीं करवाना चाहते। मस्त-फक्कड़ हैं एकदम। निजी दोस्तों के बीच फूहड़ भाषा का प्रयोग करते हैं धड़ल्ले से। गाली-गलौज से भी कोई परहेज़ नहीं। उनका ख़याल है कि वाक्य में गाली का बंद लगा कि बात में धार आई। पर बाहर के लोगों के बीच अपने को काफ़ी साधकर चलते हैं।
ज्योतिष पर अनंत विश्वास है सुकुल बाबू को। तरह-तरह के नग-जड़ी हुई चार बड़ी अंगूठियाँ पहन रखी हैं। गले और बाजू में गंडे-तावीज़ भी बँधे हुए मिल जाएँगे। नीलम तो अभी पिछले महीने ही पहना। पहले भी किसी ने पहनकर आज़माने को कहा था, पर हिम्मत ही नहीं पड़ी। बड़े तेज़ मिज़ाजवाला पत्थर है नीलम। माफ़िक़ न आए तो एकदम पटड़ा ही बिठा दे। लेकिन पटड़ा बैठा न पहनने से, तो पहन लिया। और देखो, रंग लाया। बिसू की मौत...लगता है जैसे थाली में परसकर मौक़ा आ गया है उनके सामने। अपनी हार को जीत में बदलना है उन्हें इस मौक़ का फ़ायदा उठाकर। मौक़ा तो पहले भी आया था, इससे भी कहीं ज्यादा अच्छा और मौजूं-पर उस समय तो अपनी पार्टी का महाभारत सुलटाने में लगे हुए थे। बासट वर्ष की उमर में क्या कुछ नहीं झेला है सुकुल बाबू ने राजनीति में ! पर इस बार का अनुभव...तीबा ! एक गड़रिए के डंडे के नीचे कैसे सारी भेड़ें रिरियाती-मिमियाती एक झंड बनाकर चल रही थीं। पर जैसे ही डंडा टूटा, आपस में ही वो मार-काट मची कि विश्वास करना मुश्किल हो गया कि ये एक झुंड की ही भेड़ें थीं। कैसी-कैसी मशक्कत झेली है उन्होंने इस बार। कोई ऐसा-वैसा होता तो दम तोड़ गया होता अभी तक। यह तो सुकुल बाबू ही हैं कि टिके हुए हैं। केवल टिके हुए ही नहीं, सबको ठिकाने लेकर टिके हुए हैं। पर मन बेहद क्षुब्ध हो गया है उनका। उन्हें खुद लगने लगा कि राजनीति गुंडागर्दी के निकट चली गई है। जिस देश में देव-तुल्य राजनेताओं की परंपरा रही हो, वहाँ राजनीति का ऐसा पतन ! कभी-कभी मन में एकदम वैराग्य जाग जाता है, पर राजनीति में जहाँ तक अपने को धंसा लिया, वहाँ से निकल भी तो नहीं सकते। निकलने का सीधा अर्थ है-हार मान लेना। और जीवन में एक यही तो बात है जिसे वो कभी नहीं मान सकते। पिछले चुनाव में हारकर भी मन से वे उस हार को एक दिन के लिए भी स्वीकार नहीं कर सके। उस हार को जीत में बदलना ही है-जो भी हो...जैसे भी हो। कृतसंकल्प हैं उसके लिए !
आज सारे दिन सुकुल बाबू अपनी गोटियाँ ही बिठाते रहे। शाम के भाषण में कौन-कौन-से मुद्दे उठाने हैं...कितने वोट खोने हैं और कितने पाने हैं ? अभी तक हरिजनों के बूते पर ही चुनाव जीतते आए थे। पिछली बार इन लोगों ने आँख फेरी तो मुँह की खानी पड़ी। पर इस बार कैसे आँख फेरेंगे ? और आख़िर क्यों फेरेंगे ? बिसू सारी जिंदगी इन्हीं लोगों के लिए तो लड़ता रहा था। वे बिसू की मौत का हिसाब ही तो माँगेंगे सरकार से...इस पर भी लोग उनके सुर-में-सुर नहीं मिलाएँगे ? ज़रूर मिलाएँगे। और हरिजनों का सुर मिल गया तो फिर से सुगम-संगीत बजने लगेगा-कम-से-कम उनकी अपनी जिंदगी में तो।
एकाएक उनका मन बिसू के प्रति कृतज्ञता से भर गया। बस, एक ही डर है अब ! जोरावर हुड़दंग न मचवा दे ! एकदम उजड्ड आदमी है-बीहड़। पर पूरे गाँव और पंचायत में दबदबा है उसका ! सारा गाँव थर्राता है उससे। सरपंच भी तो उसका चाचा ही है। बस, एक बार किसी तरह बिना किसी गड़बड़झाले के रंग जमाने को मिल जाए तो लोगों को पूरी तरह अपने साथ बहाकर ले जाएंगे। बहाकर ले जाने का मतलब अब वे खूब अच्छी तरह समझ गए हैं, और बहाव की ताक़त भी ! कुछ अरसे पहले जो आया था, वह बहाव ही तो था। बहाव नहीं, बवंडर ! एक ज़ोरदार बवंडर ! कुर्सियों पर बैठे सारे लोग धड़ाधड़ नीचे जा गिरे। बड़ी-बड़ी हस्तियाँ तक नहीं टिक पाईं। उसके बाद से तो जैसे देश में बवंडरों का सिलसिला ही शुरू हो गया...आन्ध्र में बवंडर, दिल्ली में बवंडर...उड़ीसा में बवंडर ! उस बवंडर ने इतिहास बदला तो ये बवंडर भूगोल बदलने में लगे हैं। और यदि वे बवंडर ले आए तो ? वह शायद उनकी किस्मत बदल देगा। एक बार जीतकर किसी तरह विधानसभा में पहुँच जाएँ तो फिर वहाँ बवंडर का सिलसिला शुरू करेंगे ! जोड़-तोड़ करने की अपनी क्षमता पर काफी भरोसा है सुकुल बाबू को। फिर सत्तर दरारवाली खोखली नींव पर खड़े इस मांत्र-मंडल को गिराना यों भी कोई मुश्किल बात नहीं। अपने लोग ज़रा-सा साथ दें तो बाएँ हाथ का खेल है यह उनके लिए !
सुकुल बाबू के भाषण की सूचना से गाँव में तनाव-भरा सन्नाटा तो टूटा ! वरना अजीब मायूसी छाई हुई थी गाँव में।
जब तक बिसू की लाश गाँव में रही, बड़ी खलबली मची रही वहाँ। भीड़...बातें...और भीड़, और बातें ! जितने मुँह उतने अनुमान। किसने मारा बिसू को, और कैसे मारा ? शरीर पर कहीं भी तो चोट या प्रहार का कोई निशान नहीं। रात में अच्छा-भला घर में सोया था और सवेरे पुलिया पर लाश मिली। जहाँ लाठी-फावड़े या सीधे बंदूक से मरने-मारने का रिवाज़ हो, वहाँ ऐसी रहस्यमय मृत्यु वेहद सनसनी पैदा कर रही थी सबके मन में।
पुलिसवालों की ऐसी चस्ती तो गाँववालों ने पहले कभी नहीं देखी। शायद पिछली घटना का सबक़ भूले नहीं थे-अभी तक। इधर खबर पहँची और तुरंत ही थानेदार साहब अपने कांस्टेबलों को लेकर मौक़ पर हाज़िर। जाने कितने लोगों के बयान हुए। लाश सबसे पहले किसने देखी...किस हालत में देखी ? विसू की पूरी जन्म-पत्री खुली। कब इसने
क्या कहा...क्या किया ? इसकी दोस्ती..इसकी दुश्मनी...इसके मिलने-जुलनेवाले-जिंदगी की पूरी डायरी, जो शायद विसू कभी नहीं लिखता, पुलिस लिखकर ले गई।
लेकिन लाश के जाते ही एक अजीब तरह का सन्नाटा छा गया वहाँ। तनाव-भरा सन्नाटा। गाँव के पूरब में एक बड़ा-सा अखाड़ा है जुम्मन पहलवान का जिसमें तीस-चालीस पट्टे लाल लँगोटे बाँधकर वर्जिश करते रहते हैं रात-दिन। दंड पेलना, लाठी भाँजना, मुगदर घुमाना, कुश्ती लड़ना...कुछ-न-कुछ चलता ही रहता है। शाम के समय काम से लौटते हुए लोग कुछ देर खड़े होकर तमाशा ज़रूर देखते। यह अखाड़ा गाँववालों के मनोरंजन का केंद्र भी है, और आतंक का स्रोत भी। इसी अखाड़े की आबादी जब अपनी तेल-पिलाई हुई लाठियाँ लेकर गाँव के गली-बाज़ारों में उतर आती है तो सारे गाँववालों को साँप सँघ जाता है और सबकी जीभ तालू से चिपक जाती है। जैसे ही बिस की लाश चीर-फाड़ के लिए शहर गई, अखाड़े के ये लठैत गश्त लगाने लगे गाँव में। उसके बाद लोगों के मुँह से आहे भले ही निकलती रही हों, बात नहीं निकली। बिसू के मारने का तरीक़ा चाहे न समझ में आ रहा हो, पर मरवानेवाले का नाम शायद सबके मन में बहुत साफ़ था। नाम भी, कारण भी। पर केवल मन में। बयान के समय भी ज़बान पर कोई नहीं लाया। बिसू का बाप भी नहीं।
लेकिन आज दोपहर से ही गाँव एक नई चहल-पहल से भर गया है। भोंपू-लगी जीप गली-गली गुहारती फिर रही है-'आज शाम छह बजे हरिजन भाइयों के हमदर्द दोस्त श्री सुकुल बाबू आप लोगों से बातचीत करने आएँगे। बिसेसर की मौत सरासर जुलुम है, इसे बरदाश्त नहीं किया जाएगा। आइए और सुकुल बाबू की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर बिसू की मौत का जवाब तलब कीजिए। शाम छह बजे।'
लग रहा था जैसे बिसू हीरा का बेटा नहीं, सुकुल बाबू का अपना बेटा है और उसकी मौत का दुख, उनका अपना दुख है-जिसे बँटाने के लिए वे गाँववालों से याचना कर रहे हैं।
चार बजे तक गाँव एक अच्छे-खासे आयोजन के लिए तैयार हो गया। मैदान में दो तख़त जोड़कर मंच बना दिया गया। मंच पर गद्दा बिछ गया, गाव-तकिए लग गए। बस, उस पर बिराजने के लिए सुकुल बाबू की काया की प्रतीक्षा है। कोई सौ-डेढ़ सौ नए चेहरे भी गाँव में उतर आए हैं। जोरावर की ओर से कोई गड़बड़ी हो तो बचाव करेंगे...नहीं तो मज़मे की संख्या ही बढ़ाएँगे। कल के अखबारों में यह तो छप सकेगा कि सुकुल बाबू का भाषण सुनने के लिए जनता उमड़ पड़ी। आज कुर्सी पर नहीं हैं तो इससे क्या...कोई मामूली हस्ती तो नहीं सुकुल बाबू।
गाँव की मायूसी से मुरझाए बच्चों के चेहरे खिल उठे हैं। उन्हें मेले जैसा मज़ा आ गया है। पहले जीप के पीछे-पीछे दौड़ते रहे, अब काग़ज़ के भोंपू बनाकर खुद चिल्लाते फिर रहे हैं। यह मौक़ा ग़मी की वजह से आया है या खुशी की वजह से, उन्हें कोई मतलब नहीं-उनके लिए तो एक शगल हो गया।
ठीक छह बजे सुकल बाबू की एंबेसेडर गाँव में प्रवेश कर गई। समय के पाबंद हैं सुकुल बाबू। दो गाड़ियाँ और भी आई हैं। और तीन जीप। सब लोग धड़ाधड़ उतरे। पार्टी की ओर से स्वागत करने के लिए पहले से ही तैयार हैं कुछ लोग। पर स्वागत सूखे अभिवादनों से ही हुआ है। मालाबाज़ी एकदम नहीं। मौक़ा गम का जो है। इन छोटी-छोटी बातों का बड़ा ध्यान रखना पड़ता है। सब लोग मंच पर चढ़े। सुकुल बाबू की चाल विशेष रूप से धीमी है। कुछ तो उनके शरीर का भारीपन आड़े आता है, कुछ आज का यह मातमी मौक़ा !
ऊपर चढ़कर अभिवादन की मुद्रा में उन्होंने हाथ जोड़े। नज़रों ने संख्या का अनुमान लगाते हुए भीड़ के विस्तार को अपने में समेटा।
'मजमा ठीक ही जुड़ गया' का भाव चेहरे पर संतोष की हलकी-सी परत पोत गया। बस सारा आयोजन शांति से हो जाए और उनकी बात लोगों तक पहुँच जाए। इस घटना से लोगों के दिमाग ज़रूर उस ज़मीन जैसे हो रहे होंगे जो वर्षा के स्पर्श मात्र से फूट पड़ने को तैयार रहती है। आज वे ऐसी वर्षा करके जाएँगे कि फ़सल उनके हिस्से ही पड़े। मन-ही-मन उन्होंने उँगली में पड़े नीलम को नमस्कार किया और 'मत चूके चौहान' के भाव से माइक सँभाल लिया।
बोलते अच्छा हैं सुकुल बाबू ! विरोधी को काटने में माहिर। गला साफ़ करके आवाज़ को साधकर उन्होंने बोलना शुरू किया-
‘प्यारे भाइयो और दोस्तो,
'आपके दुख में शामिल होने के लिए आज मैं यहाँ आया हूँ। दुख तो आप लोगों पर इससे पहले भी पड़ा था और इससे कहीं अधिक बड़ा दुख था वह। दुख शब्द तो बड़ा हलका है उसके लिए। सरेआम इतना जुलुम-ऐसा अमानुषिक अत्याचार ! सुना था तो तिलमिला गया था भीतर-ही-भीतर, और आज तक किसी को कोई सज़ा नहीं हुई !'
क्षणिक विराम !
'क्या दोष था इन हरिजनों का ? यही न कि सरकारी रेट पर मजदूरी माँग रहे थे ? गुनाह था यह ? पर शायद था-तभी तो जिंदा जला दिए गए और जिन्होंने जलाया, उन पर कोई उँगली उठानेवाला तक नहीं। बेचारे बिसू ने उँगली उठाने की कोशिश की तो हमेशा के लिए चुप कर दिया गया उसे। अब होगी किसी की हिम्मत जो चूँ भी कर जाए ! हो ही नहीं सकती। पुलिस गवाही लेने आई। तब भी किसी की हिम्मत नहीं हुई कि सच बात कह दे। जानते हैं, सच बोलते ही गला दबा दिया जाएगा और जहाँ सच का ही गला दबता हो, वहाँ न्याय की उम्मीद की जा सकती है ? भूल जाइए कि आपको कभी न्याय मिलेगा।
अपनी बात की प्रतिक्रिया जानने के लिए सुकुल बाबू ने मज़मे की ओर देखा, पर मज़मा चुप बैठा था-सूने-सपाट चेहरे लिए। सुकुल बाबू ने बात आगे बढ़ाई
'बयान लेने का नाटक तो हो ही गया और इस बार बहुत मुस्तैदी से भी हुआ ! अब मामला गहरी छानबीन के लिए ऊँचे अफ़सरों के हाथ में सौंप दिया जाएगा जो कभी किसी नतीजे पर पहुँचेंगे ही नहीं। कम-से-कम चुनाव तक तो नहीं पहुंचेंगे। आप लोग मरें या जिएँ, इन्हें तो चुनाव जीतना है-हर हालत में। और चुनाव जीतने के लिए गाँव के धनी किसानों के वोट भी चाहिए और पैसा भी। इसलिए अभी उनकी हर ज़्यादती पर, हर अन्याय पर परदा डाला जाएगा...उन्हें बचाया जाएगा। इसलिए अच्छी तरह जान लीजिए कि इस हत्या के लिए कुछ नहीं होने जा रहा है। कौन करेगा ? पंचायत इनकी...पुलिस इनकी, और अब तो विश्वास हो गया होगा आपको कि सरकार भी इन्हीं की है। तब कौन लड़ेगा आपकी लड़ाई ?... आपको न्याय दिलाने के लिए...आपका हक़ दिलाने के लिए कौन आएगा ?'
सुकुल बाबू ने तैश में लिपटा हुआ प्रश्न मज़मे के बीच उछाल दिया, इस उम्मीद से कि भारी प्रतिक्रिया होगी उनकी बात की या कि उनके नाम के नारे ही लग जाएँ, पर वैसा कुछ हुआ नहीं। बस, एक कोने से बड़ी रिरियाती-सी आवाज़ आई-
'का बताई... हमार दुख मुला कोई नहीं जानता...' कि तभी बगल में खड़े आदमी ने हाथ की लाठी को ज़मीन पर ठोंका तो वह रिरियाती आवाज़ भी डूब गई।
तब सुकुल बाबू ने आवाज़ को और भी ऊँचा चढ़ाकर चेतावनी देते हुए कहा, 'गाँठ बाँध लीजिए कि यह सरकार आप लोगों के लिए कुछ नहीं करने जा रही। इसे लगाव आपसे नहीं, अपनी कुर्सियों से है और कुर्सियों का तकाज़ा यही है कि अभी ऐसी बातों को गोलमोल करके ही छोड़ दो। कुर्सी और इंसानियत में बैर है। इंसानियत की खाद पर ही कुर्सी के पाए अच्छी तरह जमते हैं।'
मज़मे में एक सिरे पर जहाँ नए-नए चेहरेवाले लोग बैठे थे, तालियाँ बजने लगीं।
'शांत रहिए...शांत रहिए... !' उस ज़रा-से शोर के लिए सुकुल बाबू ने ऐसे कहा जैसे भारी शोर मच रहा हो। फिर अपनी बात जारी रखते हुए कहा-
'चुनाव जीतने के लिए सारा जोर लगा दिया है सरकार ने। पर मैं पूछता हूँ कि क्यों ? मैं तो हारा हुआ आदमी हूँ-मुझसे भला कैसा डर ? अरे जनता ने भरोसा करके आपको कुर्सी पर बिठाया और कुर्सी पर बैठकर आपने जो कुछ किया, जनता के हित में ही किया होगा...फिर डर काहे का ? काहे सफ़ेद को काला और काले को सफ़ेद करने में लगे हो ?'
क्षणिक विराम।
'इस हारे हुए सुकुलवा से डरने की ज़रूरत नहीं, पर भगवान से ज़रूर डरो। इन बेज़बान, बेगुनाहों पर इतना ज़ोर-जुलुम मत करो !'
मज़मे में हलकी-सी सुरसुराहट होने लगी तो सुकुल बाबू के चेहरे पर चमक और आवाज़ में तेजी आ गई–'मैं मानता हूँ कि हमसे गलतियाँ हुईं। आपने दिखा दी और हमने मान लीं ! क्योंकि जनता कभी गलती नहीं करती। इस सरकार ने आपकी सुख-शांति, उन्नति-समृद्धि के लिए बड़े-बड़े आश्वासन दिए...हम आश्वस्त हुए, क्योंकि जनता के कल्याण में ही हमारा सुख है !'
सभा एकदम स्तब्ध।
'सच मानिए, यदि मुझे लगता कि इस सरकार के हाथों आपका भला-ही-भला होना है तो आज आप लोग मुझे यहाँ कभी नहीं पाते। इस सत्कार्य में दा साहब का सहयोगी न बनकर विरोधी बनूँ, इतना नीच नहीं हूँ। पर बातें कुछ, और काम कुछ ! दिन-दहाड़े के इस जुलुम को चुपचाप बरदाश्त कर लूँ, इतना गया-गुज़रा भी नहीं हूँ।'
क्षणिक विराम।
'यह मत सोचिए कि मैं यहाँ आपसे वोट माँगने आया हूँ। एक बार हारने के बाद अब हार-जीत का अंतर ही मिट गया मेरे लिए।'
हाथ में लाठी लिए कोई पच्चीस-तीस आदमी मज़मे में इधर-उधर बिखरे हुए थे, उन्हीं में से एक बोला
'तो कउन हकीम बोले रहा खड़े होने को ?'
सुकुल बाबू सिटपिटाए नहीं। तुरंत ही जवाब पकड़ाया, तैश के साथ-'खड़ा हुआ हूँ आप लोगों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए। बिसू की मौत का हिसाब पूछने के लिए। बात केवल बिस की मौत की नहीं है...यह आप सब लोगों के जिंदा रहने का सवाल है...अपने पूरे हक़ के साथ ज़िदा रहने का। यह मौत कुछ हरिजनों की या एक बिसू की नहीं...आपके जिंदा रहने के हक़ की मौत है। आपका यह हक़ ज़रा-से स्वार्थ के लिए गाँव के धनी किसानों के हाथ बेच दिया गया है...और यही हक़ मुझे आपको वापस दिलवाना है। जुलुम ने आप लोगों के हौसले तोड़ दिए हैं, इसलिए मैं लगा आपकी यह लड़ाई ।...आखिरी दम तक लगा। आप लोग साथ देंगे तो भी...नहीं देंगे तो भी...।'
'सुकुल बाबू, जिंदाबाद !...हरिजनों के हमदर्द, जिंदाबाद !'
उसी कोने में नारे लगने लगे। बाक़ी लोग नारे लगाने के बजाए नारे लगानेवालों को देखते रहे और लट्ठधारी अपनी-अपनी लाठियाँ ज़मीन पर ठकठकाते रहे। पर मज़मे में अब काफ़ी सरगर्मी फैल गई और लोगों के चेहरे पहले की तरह सूने और सपाट नहीं रह गए।
सुकुल बाबू ने आवाज़ और अदा बदलकर बड़ी नाटकीय मुद्रा में कहा, 'आप लोग मुझसे नाराज़ हुए...हक़ था आपका। पर बदले में मैं भी नाराज़गी दिखाता तो गुनाह होता मेरा। कैसे भूल सकता हूँ कि दस साल तक आप लोगों का होकर रहा हूँ...आप लोगों के लिए रहा हूँ...हक है आप लोगों का मुझ पर और अब हक-अदायगी का अवसर आया है तो यह सुकुलवा चूकेगा नहीं। चूके तो जूते मारिए उसके मुँह पर।'
क्षणिक विराम।
'मुझे दा साहब से न्याय माँगना है। बातें और आश्वासन नहीं, नौ-नौ आदमियों को मारनेवाला मुजरिम चाहिए। बिसू को मारनेवाला हत्यारा चाहिए !
तभी एक कोने में कुछ गोलमाल होने लगा। बात कुछ ठीक से समझ में नहीं आई, उससे पहले ही दूसरे कोने से फिर नारे लगने लगे।
'और धाँधली-नहीं चलेगी, नहीं चलेगी।'
'सुकुल बाबू-जिंदाबाद !'
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