योग >> योग निद्रा योग निद्रास्वामी सत्यानन्द सरस्वती
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योग निद्रा मनस और शरीर को अत्यंत अल्प समय में विक्षाम देने के लिए अभूतपूर्व प्रक्रिया है।
संस्कारों का निर्मूलन
जब मन अन्तर्मुखी होकर एकाग्र हो जाता है, तब चेतना बनाये रखने के लिए उसे क्रमशः प्रतीकों एवं चिह्नों पर केन्द्रित किया जाता है। हर प्रतीक का एक निश्चित रूप होता है, चाहे वह रूप ईसामसीह का हो, बुद्ध का हो या आपके गुरु का हो। अथवा यह प्रतीक कमल पुष्प, हिरण्यगर्भ, चक्र, ज्यामितीय आकार, मण्डल, यंत्र, किसी रंग या ध्वनि का रूप धारण कर सकता है।
प्रारम्भ में जब व्यक्ति प्रतीकों को देखना शुरू करता है, तब बहुत से अन्य प्रतीक भी उसके सामने आ सकते हैं, जैसे - शैतान, सर्प, भूत-प्रेत आदि जो उसके ध्यान को प्रभावित सकते हैं अथवा सुंदर बगीचा, बावड़ी, झरने, संतों के दर्शन, ईश्वर के दर्शन आदि की भी कल्पनायें आ सकती हैं। ये सभी चिह्न अवचेतन मन के प्रतीक हैं, जो अहंकार में निहित रहते हैं। इनका सम्बन्ध पीड़ित अनुभूति, निराशाजनक कामना, अधूरी वासनाओं, अत्यधिक नियंत्रण, भय, हीनता की भावना, स्नायु तंत्र की कमजोरी आदि से रहता है। ये संस्कार विचारों और अनुभवों के फलस्वरूप आते हैं जो व्यक्ति को विभिन्न कार्यों के लिए बाध्य करते हैं। इनके पनपने का मूल कारण तनाव, मानसिक हलचल एवं रोग भी हो सकते हैं। योग निद्रा का अभ्यास व्यक्ति के मन से इन संस्कारों को दूर करता है। योग में प्रवीण होने के लिए संस्कारों का दहन करना आवश्यक है।
अभ्यासी का दृष्टिकोण
साधक का मन प्रतीकों के प्रति अनासक्त रहना चाहिए। जैसे वह कोई चलचित्र देख रहा हो। इसी प्रकार से दश्यों का अवलोकन करते रहना चाहिए। उन पर कोई तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श अथवा निर्णय देना या उन्हें बुरा कहना ठीक नहीं है। जव दृश्य इस प्रकार के अनासक्त मन से देखे जाते हैं तो अहंकार कुछ समय के लिए शिथिल पड़ जाता है। वह नियंत्रण अथवा पहचान, पसंद-नापसंद की परिधि से वाहर चला जाता है। अत: यह पूर्व की धारणाओं से अप्रभावित रहते हुए तथा अन्य भावनाओं के प्रति भी गलत धारणा न बनाते हुए अपना सही रूप प्रस्तुत करता है।
चेतन मन में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क, भय, लालसाएँ, अप्राकृतिक इच्छाएँ उठा करती हैं। जब उन्हें अनासक्त रूप से देखने की क्रिया मालूम हो जाती है तब ये वासनायें समाप्त हो जाती हैं अथवा चेतन मन में समा जाती हैं। परिणामस्वरूप जो शक्ति पहले इन वासनाओं को दबाने में खर्च होती थी, अब अधिक क्रियाशील होकर अन्य उपयोगी कार्यों में खर्च होने लगती है, इस प्रकार व्यक्ति का स्वभाव पूर्णत: बदल जाता है और वह चेतन व अवचेतन के बीच द्वन्द्व से मुक्त हो जाता है।
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