जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
सेविका ने आकर दीपक जलाया। वह अभी बाहर गई भी न थी कि एक सेविका ने प्रवेश
करके कहा, “महाराज ने भोजन भेजा है।"
केशवराय की आंखें अब भीग गईं। बोले, "अभागिन! तू तो चली गई।
किन्तु जब कर्म में इस पन्द्रह वर्ष के बालक का सिर घुटा देखूगा तब क्या मेरी
छाती न फट जाएगी? हरलाल!"
"मालिक!" उसने कातर स्वर में कहा।
"मैं कहता न था कि इस संसार में कोई किसी का नहीं होता। सब यात्री होते हैं।
हम सब एक-दूसरे को अपना-पराया समझते हैं, पर यह भी कोई जीवन है कि हमारा जन्म
और मरण पर ही अधिकार नहीं है। मैं चाहता था सब छोड़ जाऊं। पर भाग्य! वह तो
नचाता है। वह क्या किसी को छोड़ता है?"
वे अधिक नहीं कह सके।
जब कर्म समाप्त हो गया और भीड़ें पुआ खाकर चली गईं, दिन बीतने लगे।
बिहारी आचार्य केशव की सेवा में उपस्थित रहता, परन्तु पिता अधिक नहीं
मिलते-जुलते। घर बहन संभालती। कई महीने बीत गए।
एक दिन ओरछा में हलचल-सी छा गई। किन्तु फिर भी सब पर उदासी का वातावरण था।
काले कपड़े पहने सेना के घुड़सवार निकल गए और झंडे झुक गए। चालीस दिन का मातम
प्रारम्भ हो गया। शाहंशाह अकबर का ‘स्वर्गवास' हो गया था। फिर जश्न शुरू हुए।
अब उनका पुत्र सलीम जहांगीर का नाम धारण करके शाहंशाह बन गया था। ओरछे के
महाराज दलबल के साथ दरबार में गए और साथ में भेंट भी लेते गए जब लोटे तो
उन्हें नए खिताब और पोशाकें मिलीं। वे प्रसन्न थे। वीरसिंहजू देव का पराक्रम
और भी फैल गया, क्योंकि वे जहांगीर के कृपापात्रों में थे।
इतनी बड़ी हलचल हुई। इतनी कथाएं सुनाई दी कि नए बादशाह के हरम में आज तो
क्या, जब वे 18 वर्ष के थे, तभी 500 रखेलें थीं। कहते थे, वे बड़े सुन्दर थे।
और शराब पीने का तो उन्हें बहुत ही शौक था। बड़े न्यायप्रिय थे । कहते थे कि
जब सम्राट अकबर का अन्तिम समय आया तब जयपुर मानसिंह, शाहंशाह जहांगीर की जगह
उनके पुत्र को गद्दी पर बिठाना चाहते थे, लेकिन बूढ़े अकबर शाह ने स्वयं अपना
ताज सलीम को देकर उसे सलाम किया था।
किन्तु पिता ने जैसे कुछ नहीं सुना। अब वे केवल अपना काम कर आते, और अब
महाराज बुलाते तब हो आते।
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