जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
दो वर्ष और बीत गए। आचार्य केशवदास बीमार थे। केशवराय ने पूजा समाप्त करके
अपने ठाकुर को दण्डवत की। उठे ही थे कि सेवक ने आकर सूचना दी, “कविराय
केशवदास गोलोकवासी हुए।"
केशवराय ठिठके-से खड़े रह गए। बिहारी 12 वर्ष का था। फूट-फूटकर रो उठा। जाकर
देखा, वे रेशमी कफन ओढ़े सो रहे थे। महाकवि फूलों की सेज पर सदा लिए सो गया
था।
केशवराय ने झुककर कवि के चरणों को छू लिया। बिहारी चरणों से लिपटकर फूट-फूटकर
रोने लगा। प्रवीणराय मूर्च्छित पड़ी थी। दासियां गुलाबजल छिड़ककर उसे होश में
लाने का प्रयत्न कर रही थीं। महाराज नंगे पांव आए थे कवि को ले जाने आज ओरछा
की गौरव-पताका झुक गई थी।
पथों पर सन्नाटा था। महाराज ने कंधा लगाया। अन्तिम स्वर गूंजे जिन्होंने एक
बार फिर मनुष्य को उसके जीवन की निस्सारता दिखाई और वे फिर इस यथार्थ वेदनामय
जीवन के संघर्षों में भुला दी गई।
सांझ हो गई तब बिहारी ने पिता के चरणों पर रोकर सिर रखते हुए कहा,
"दादा! अब मैं कहां जाऊं?"
केशवराय ने उसे देखा, किन्तु बोले नहीं। बहन ने देखा कि उनके होंठ कांप रहे
थे, जैसे वे अपने आंसुओं को बड़ी कठिनाई से रोके हुए थे।
दीपक जल गए। परवाने चक्कर काटने लगे। बिहारी देर तक देखता रहा।
धीरे-धीरे अनेक जलकर वहीं ढेर हो गए।
पौ फटी। पिता की खड़ाऊं का स्वर सुनाई दिया।
"बिहारी!"
'हा, दादा"
"तू सोया नहीं?"
"नींद नहीं आई!"
"क्यों?"
"गुरुदेव सारी रात यहीं थे दादा!"
"गुरुदेव!" उन्होंने कहा, “यही थे?"
हरलाल पास आ गया।
"हरलाल!"
"हां, मालिक!"
"मेरा मन उचट रहा है।"
"क्यों मालिक!"
"मेरे लिए ओरछा में अब क्या है?"
"बच्चों को बड़ा होना है। जीविका है।"
"मुरारी देंगे हरलाल! पूर्वजों की देह जिस धूलि में मिली है, मैं भी वहीं
जाऊंगा। मुझे भी वहीं की धूलि में जाकर मिलना होगा। फिर रुककर कहा, “नहीं,
तुम घबराओ नहीं। मुरारी ने जिनका उत्तरदायित्व मुझे दिया है, उनका सारा काम
निःशेष करके ही मैं उसकी सेवा में जाऊंगा, क्योंकि अन्यथा क्या वह प्रसन्न
होगा?"
हरलाल अवाक् खड़ा रहा।
"मैं महाराज से छुट्टी लेने जाता हूं। हम ब्रजभूमि में लौट चलेंगे।"
वे चले गए।
बिहारी उठा और उनके लौटने की प्रतीक्षा करता बैठा रहा। आज उसका मन भीतर ही
भीतर व्याकुल हो रहा था।
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