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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

दो

 
गुढ़ौग्राम के स्वामी नरहरिदास अत्यन्त विख्यात व्यक्ति थे। जब वे ब्रज में जा बसे थे उनके दर्शनार्थ अनेक व्यक्ति आया करते थे। केशवराय भी वहीं आ बसे। बिहारी ने स्वामी नरहरिदास से दीक्षा प्राप्त की। यहीं  आकर उसने विधिपूर्वक शास्त्रों तथा साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया।

धौम्य गोत्रीय श्रोत्रिय चतुर्वेदी माथुर केशवराय घरबारी अल्ल वाले थे। उनकी शाखा आश्वलायन थी। उनके तीन प्रवर कश्यप, अत्रि और सारण्य थे। उनकी कुलदेवी का नाम महाविद्या था। उन्होंने सबसे पहले पुत्री का विवाह परम्परानुसार एक श्रेष्ठ मिश्र परिवार में कर दिया। कुछ ही दिन बाद उन्होंने ज्येष्ठ पुत्र का मैनपुरी में विवाह कर दिया और वह दिल्ली की ओर चला गया। स्वयं उन्होंने बिहारी का मथुरा में विवाह कर दिया और तब वे फिर अपनी काव्य-साधना में लग गए। हरलाल मर चुका था। नानिगराम को अब दीखता नहीं था। पिता की भांति ही बिहारी भी कविता लिखने लगा था। स्वामी नरहरिदास उसकी प्रतिभा देखकर प्रसन्न रहते थे। किन्तु पिता के लिए जैसे अब कुछ भी नहीं था। वे एक झोंपड़ी में रहते और उन्हें जैसे किसी की भी याद नहीं आती थी अंधा नानिगराम बैठा गुनगुना रहा था :

 
"अति अगाध, अति औथरौ, नदी कूप सरु बाई।
सो ताकौ सागर, जहां, जाकी प्यास बुझाइ।"


वृद्ध केशवराय सुनकर ठिठक गए।
धीरे से कहा, "नानिगराम?"
“ओ हो! कौन मालिक!"
"अच्छा तो है?"
"अच्छा हूं मालिक! अंधे को आपने स्वामी नरहरि की ड्योड़ी पर रख दिया। मेरे लिए इससे अच्छा और क्या होता? यहां सब से दूर पड़ा हूं, माया से ममता से। भगवान् का नाम तो ले पाता हूं। बहुत पाप किए थे मैंने जो गिरिधर ने अंधा कर दिया, पर बाहर की इसीलिए छीन ली उसने क्योंकि हिए में की मूंदे बैठा था। अब सब कुछ साफ दिखाई देता है। मालिक।"

"तू क्या गा रहा था नानिग?"
"कुछ नहीं,” उसने हंसकर कहा, “स्वामी नरहरि के पास बिहारी भइया बैठे कविता सुनाया करते हैं। एक दिन मैंने कहा, "भइया! स्वामी जी इतने प्रसन्न होते हैं, सब लोग तुम्हारी तारीफ करते हैं, कुछ हमें भी सुनाओ!' बोले- 'मैं क्या जानता हूं काका!' पिता से तुमने क्या न सुना होगा। मैं उनकी-सी कविता कहां लिख पाता हूं।' मैंने कहा-'भइया! तुम सपूत हो, तभी पिता की स्तुति करते हो! नहीं तो इस कलजुग में बाप को बेटा कब पूछता है।' बोले अचानक-और वह दोहा मैंने याद कर लिया है।"

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