जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
"क्या दोहा है नानिग, फिर दुहराना!"
"उसने फिर दुहराया।"
"यह बिहारी ने बनाया है?"
'इसमें भला क्या पूछना मालिक, आप तो जाने काहे में खोए रहते हैं।
बिहारी ने तो कई दोहे बनाए हैं।"
पिता चले गए। और उनके होंठों ने फिर वह दोहा दुहराया। बिहारी अपने कोठे में
लिख रहा था। खड़ाऊं की आवाज सुनकर बैठ गया। पिता ने कहा,
"बिहारी!"
वह द्वार पर आया।
बोले, “बेटा! मैं राह भूल गया था।"
बिहारी समझा नहीं। देखता रहा।
बोले, "मैं जा रहा हूं।"
"कहां पिता?"
"स्वामी नरहरि के पास।"
एक बार उन्होंने उसे फिर आंख भरकर देखा और कहा, “याद है न? मथुरा में तेरी
ससुराल है। तेरा कर्त्तव्य तेरी पत्नी के प्रति है। उसे, हां, उसे तू आग के
फेरे देके अपनी कह आया है। जा, उसे ले आ।"
“संझा को चला जाऊंगा।"
"नहीं पुत्र! अब इतनी देर मत कर।"
बिहारी ने घोड़ा कसा और चल दिया। जब वह आंखों से ओझल हो गया, पिता ने अपने
कोठे का कोना खोदा। तीस अशर्फियां बची थीं। निकालकर पोटली बांध ली और कमर में
खोंस ली और स्वामी नरहरि के निवास स्थान की ओर चल पड़े।
स्वामी नरहरि अभी सोकर उठे थे। कोई शिष्य बाहर वीणा बजा रहा था।
वे स्वयं बड़े अच्छे गायक थे। अब वे काफी वृद्ध हो गए थे।
केशवराय ने जाकर चरणों में प्रणाम किया।
"आओ कवि!"
“आपने सुना!" केशवराय ने बैठकर कहा।
"क्या?"
"पुत्र ने मुझे उपदेश दिया है।"
"किसने! बिहारी ने?"
"हां, महाराज! स्वयं उसी ने।"
"है कहां?"
"मैंने उसे बहू को लाने भेज दिया है। क्योकि अब पुत्र ने मेरी आंखें खोल दी
हैं। अब मुझे संन्यास दें।"
"क्यों?" स्वामी नरहरि दास ने चौंककर कहा, “उसने क्या कहा?"
"उसने?" पिता ने गर्व से कहा, “उसने सब कुछ कह दिया महाराज! सुनिए :
सो ताकौ सागर, जहां, जाकी प्यास बुझाइ।
"ठीक ही तो कहा है कि नदी, कुआं, तालाब और बाबड़ी का पानी चाहे बहुत गहरा हो, चाहे बहुत उथला हो, परन्तु उसके लिए तो वही सागर हो जाता है, जहां उसकी तृष्णा शान्त हो जाती है, जहां जिसकी प्यास बुझ जाती है।"
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