जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
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पिता ने अपना दुपट्टा उतारकर रख दिया और चटाई पर लेट गए। बहिन भीतर थी बिहारी द्वार के पास खड़ा था।
चारों ओर नीरवता छा रही थी।
सेवक और सेविकाएं मौन थीं।
बाहर आहट हुई।
"कौन?" हरलाल ने पूछा।
नानिगराम ने भर्राए गले से कहा, "भइया!"
सिर पर सफेद अंगोछा धरे बड़े भइया ने प्रवेश किया।
पिता ने मुंह फिरा लिया। नानिगराम रोने लगा। बिहारी की आंखें भर आईं। उसका नौ वर्ष का मस्तिष्क बार-बार सोचता था, फिर भी कुछ जम नहीं पाता था। भीतर से बारह वर्षीया बहिन निकली और उसने अपने पन्द्रह वर्षीय भइया को देखा जो अब घुटनों पर सिर रखे बैठा था।
"रोता क्यों है नानिग?" पिता ने दृढ़ स्वर में कहा, “रोता क्यों है? वह तो चली गई। किसी को आशा थी? कोई सोच सकता था कि दो-दो दिन के ज्वर में ही वह अपने बच्चों को छोड़कर ऐसी निठुर होकर चली जाएगी?"
हरलाल का मौन टूटा। बोला, “कितने वैद्य आए, एक की भी नहीं चली।"
"काल से कोई नहीं जीत पाता।" पिता ने फिर कहा, पर इस बार स्वर कांप गया। बिहारी रो उठा। बहिन ने उसे अपने सीने से लगा लिया और वह भी फूट-फूटकर रो उठी। भइया भी शायद अब रो रहा था। नानिगराम की हिचकियां-सी बंध गई थीं। पण्डित केशवराय ने फिर कहा, "वह मान्धाता को खा गया, राजा राम को ले गया। युधिष्ठिर को ले गया। हरलाल! यह सब जो दिखाई दिता है झूठ है, माया है। इसमें सार कुछ भी नहीं है। मनुष्य वही सुखी है-जो कहा है न आचार्य शंकर ने :
सुर मन्दिर तरु मूल निवास
शय्या भूतल मजिनंवास..."
शय्या भूतल मजिनंवास..."
"मालिक!" हरलाल ने फूत्कार किया, “साहस हार रहे हैं आप! यह बच्चे!! जानेवाली पुन्नात्मा अन्तिम दम तक ममता से लड़ती रही यम से। मां का हिया धरती के माटी-सा होता है मालिक! वह सहज ही क्या अपने फूलों को छोड़ जाता झुक जाएंगे है। आपने जीवन में क्या-क्या आपदाएं नहीं सहीं। फिर आज आप ही तो इस गिरते आकास को कौन संभालेगा।"
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