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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...

   

चार

1

  "सुशीला!" बिहारी ने कहा।
सुशीला उस समय ठाकुर जी के आगे दीपक जला रही थी। वह अकेली थी। पुजारी अभी आया नहीं था।
उसने मुड़कर देखा।
बिहारी ने कहा, “मुझे कुछ जरूरी बात कहनी है।"
उसकी आंखों में उत्सुकता छलक आई।
"चलो हम मथुरा चलें।"
"कौन?"
"हम।"
"क्यों?" उसने धीरे से कहा, “आगरा ठीक नहीं रहा?"
"तुम समझ नहीं रही हो।"
“मैं तुम्हें समझती हूं। घर के बाहर से मुझे क्या मतलब। यह मर्दो का काम है। जहां कहोगे वहीं चलूंगी।"
"अभी आती हूं।"
ढोक दी। हाथ जोड़े, फिर पति के चरणों का स्पर्श किया। फिर कहा, “अब कहो।"
"आगरे में रहना हमारे लिए ठीक नहीं।"
सुशीला नहीं समझी।
"राज्य-विप्लव की आशा है।"
"हमें राज्य कहां चाहिए?"
"नहीं चाहिए यह सत्य है, पर हम राज्याश्रित हैं।"
"तुम्हें क्या? तुम तो कवि हो!"
"कवि हूं, परन्तु शाहज़ादा खुर्रम का आश्रित हूं।"
"क्या वे नहीं रहे?"
"क्या बात करती हो। उनके न रहने की बात क्या तुम्हें ज्ञात नहीं होगी।
पर तुम नहीं समझोगी।"
"तो फिर जैसा तुम ठीक समझो। जब तक मैं अपने घर की मालकिन हूं, मैं कुछ नहीं कहती।"
सुशीला तैयार हो गई।
वे मथुरा चल पड़े।
विश्वासपात्र माधो नामक सेवक को आगरे में घर पर छोड़ा और पूरा लश्कर चल पड़ा। बांके ने मथुरा जाकर पहले ही हवेली खरीद ली। ससुराल वालों में सनसनी मच गई।
बिहारी को याद आया, एक दिन जब वह मथुरा से चला था तब उसे छोड़ने भी कोई नहीं आया था। तब पति और पत्नी दो थे।
जब वह ससुराल पहुंचा वह उनके घर नहीं गया। लश्कर सामने से निकल गया। जब तक ससुराल वाले जान पाते लश्कर आगे जा निकला था। एक बार सुशीला ने पालकी के पर्दे को ज़रा हटाकर अपने मायके घर को देखा। उफ!
कितना छोटा था! वह अब उसमें कैसे समाएगी!
विशाल हवेली में प्रवेश किया।
स्नान-ध्यान में लगे। महाराज ने भोजन परोसा। वह भी चौबे था। सुशीला ने अपनी परम्पराओं को यहां भी वैसा ही रखा जैसा वह आगरे में रखती थी।
दोपहर को खस की टट्टियों में पंखों के पहिए घुमाकर ठंडक कर दी गई।
बिहारी थक गया था। गहरी नींद आई। उठकर गुलाबजल आंखों पर छिड़का।
सुराही के पानी में मुंह धोया।
ड्योढ़ी पर बांके था।
वह द्वार पर दीखा।
"क्या है रे?"
"मालिक," बांके भीतर आ गया। उसने बताया। 'भाभी के भैया और काका आए हैं।"
"कह दो शाम को मिल लें।'
बांके लौट गया। परन्तु बीच में सुशीला मिली। उसे लौटा लाई। पति की ओर देखा।

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