जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
फिर बिहारी ने पुकारा, “सुनती हो?"
द्वार की ओट में सुशीला खड़ी थी।
"काका हैं, आ जाओ।"
सुशीला आई। प्रणाम किया। असीस पाई।
बिहारी के गर्व को सुनकर वह प्रसन्न हुई। उसने बहुत बर्तन मांजे थे थे।
आई और देखकर चली गई। उसने बांके को वहीं बुलाया। लौटी और कहा, "देखो!
यहां से एक तोड़ा अशर्फियों का इनके यहां पहुंचा दो।"
बिहारी मुस्करा दिया।
"अरे क्यों बिटिया!" काका ने कहा, “क्या जरूरत है!"
बिहारी से कहा, “तो फिर मैं चलूं।"
तब वे चले गए।
सुशीला हंसी। उसके मन की प्रतिहिंसा ठंडी हो गई थी।
बिहारी की भी।
"तुमने उन्हें माफ नहीं किया?" बिहारी ने कहा।
"बर्तन मैंने मांजे थे।" उसने कहा।
“यह तुम कहती हो सुशील!" बिहारी ने कहा।
"मैं क्यों नहीं कह सकती! यह तुम्हारा अपमान करते थे, और मैं लहू की घूटे
पीती।" यह उत्तेजित थी।
"हमें यह धन इन्हें पहले ही दे देना उचित था। बदला चुकाकर भार हल्का कर देना
उचित था।"
"क्यों नहीं? भला सोचो। लेकिन अब यह बात और क्या कोई जानेगा?"
'तुम्हें इसमें खुशी होती, अगर मैं बदला न लेती!"
"तुम्हें तो हुई!"
"मेरी खुशी से क्या होता है।"
बिहारी अप्रतिभ हुआ।
"क्यों?" उसने पूछा।
वह चुप रही।
"यह संसार स्त्री का कहां है?" उसने कहा।
बिहारी के मन पर आघात हुआ। उसने कहा, “तुम नहीं जानती कि स्त्री ही रूप की
खान है।
वह व्यंग्य से मुस्कराई।
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