जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
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"रूप ही की तो!" उसने कहा, "रूप! स्वामी! पत्नी का रूप नहीं होता, शील देखा जाता है, रूप के लिए तो..."
"ओह!” बिहारी के मुंह से निकला।
वह चुप हो गई।
बिहारी देखता रहा।
उसने फिर कहा, “मुझे एक बात सूझी है।"
वह चुप रहा।
“कहूं।"
बिहारी ने कहा, "कहो न।"
"कह ही दूं?"
"कहती क्यों नहीं!"
"निरंजन कृष्ण जो है..."
"कौन है?"
"बांके से पुछवा लिया मैंने सब हाल। यह लोग तंग हैं आजकल। भाभी
का बेटा है। दो बरस का। तो,” उसने कहा, "तुम्हारी क्या राय है? अगर अब
इनसे खरीदकर उसे मैं गोद ले लूं।"
"क्या कहती हो।"
"सच!"
"क्या कहती हो तुम?"
"हां, मैं मां नहीं बन सकूँगी।"
"क्यों? फिर सन्तान के बिना क्या अटक रहा है?"
"मुझे चाहिए।"
"क्या वे दे देंगे?"
वह हंसी। कहा, "नहीं देंगे? यह मुझ पर छोड़ दो।" उसने फिर कहा, "तुम धन को तो जानते ही हो। उसकी मार कितनी गहरी होती है!"
बिहारी को अटपटा-सा लगा। बोला, "देख लो। वैसे सोचो। जगत में संतान क्या धन से कम है?"
"मैं जानती हूं कि सन्तान के अभाव ने तुम्हें कितना दुखी किया है। और जो तुम कहते हो यह उनको लगता है जिनके कोई है नहीं। उनके और भी हैं, अतः इनकी चिन्ता वे स्वयं कर लेंगे। जानते हो न? चौबे शुनःशेष की सन्तान कहलाते हैं। जिनका पिता ने उन्हें बेच दिया था।"
"पूछ देखो,' बिहारी ने कहा।
"मैं सब ठीक कर लूंगी।"
"फिर तो तुम प्रसन्न रहोगी।"
"मैं जानती हूं,' सुशीला ने कहा, “तुम कितना भी छिपा लो पर मुझसे यह छिपा नहीं है कि तुम मेरे लिए कितना दुख उठाते हो!"
"मैंने तो कुछ नहीं उठाया!"
बिहारी के मन का बोझ टल गया।
सुशीला ने कहा, "इस बात को अब जाने दो।"
'धन मेरा है न?' सुशीला ने कहा।
"मैं भी तुम्हारा हूं।" बिहारी ने कहा।
उसने कहा, “यही तो बात है कि वारिस चाहती हूं। अनंतर वारिस । मैं इस धन का अन्त चाहती हूं।"
"नहीं," बिहारी ने कहा, “तुम्हें भाभी से बदला लेना है।"
और सचमुच सुशीला ने भाभी से बदला ले लिया। वह आई मिलने, उस दिन सोलह सिंगार करके बैठी सुशीला। अपुत्रा होकर भी दबी नहीं। आज उसमें
सामर्थ्य थी। जब उसके भाई ने सुना, वह फौरन तैयार हो गया-'इसका अर्थ था मुगल दरबार से सम्पर्क'।
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