जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
निरंजन कृष्ण आ गया। उसका गोत्र बदल गया। धन ने गोत्र बदल दिया।
मन्त्रोच्चारणों से भवन गूंज उठा। चौबों के ठट्ट लग गए। भोज की सुगन्धि से
अन्तराल भर गया। तरह-तरह के पकवान बन रहे थे। बाहर भंगी बैठे थे, जूठी पत्तल
इकट्ठी करने को। किन्तु तभी शोर होने लगा। बाहर किसानों की भीड़ थी। देहात
में गरीबी बहुत फैल रही थी। किसान शहर आए थे। इधर दावत की सुनकर भीड़ इधर आ
गई।
बिहारी बाहर आया।
कितना दयनीय दृश्य था। ग्रामीणों की भीड़ खड़ी थी। कोई लज्जा नहीं, कोई संकोच
नहीं, जैसे यहां खाना-पीना उनके लिए एक गौरव की बात थी।
बांके आगे बढ़ गया। बिहारी ने उसे रोक दिया।
देखा उसने। यह प्रजा व्याकुल है।
“क्या हुकम है मालिक?" बांके ने पास आकर पूछा।
उसने मुड़कर कहा, “यह सब लोग खाने आए हैं, तो फिर क्यों देर लगाते हो? इनको
यहीं बिठा दो पांत में। कोई लौटकर न जाए।"
बांके ने पुकारकर कहा, 'बैठ जाओ, बैठ जाओ।"
सबमें हहर व्याप गई।
वे बैठ गए। भीड़ चार-पांच हजार आदमियों से कम की न थी। उन दिनों उच्च वर्गों
में इस प्रकार भीड़ों को जिमाने का आम रिवाज था।
विहारी भीतर आ गया।
बिहारी की जयजयकार-भरी स्तुतियों से हवेली गूंजने लगी।
काका ने सिर हिलाकर भाभी के भैया की ओर देखा। उन्होंने भी आश्चर्य के स्थान
पर श्रद्धा का प्रदर्शन किया।
मथुरा के धनी चौंक उठे।
बिहारी भोज के उपरान्त फूलों की सुगन्धियां सूंघता बाग में टहलता रहा।
अन्त में वह भीतर गया।
अब रात की कंदीले बुझ चुकी थीं, परन्तु चन्द्रमा का प्रकाश कुछ अधिक मुखर हो
गया था। उसमें सबकुछ स्वप्नलोक-सा शांत और मधुर-सा प्रतीत होता था।
उसने देखा निरंजन कृष्ण के पास सुशीला सुख से सो रही थी। अब वह बहुत तृप्त
थी। मातृत्व की यह कैसी भूख थी। तो यह कल तक सुखी नहीं थी। क्या इसने मातृत्व
की तृप्ति के लिए इसे गोद लिया है, या अपनी हिंसा की तृप्ति की है?
वह हट गया। दूसरे प्रकोष्ठ में गया जो बाएं खण्ड में था। राह में टहलनियां
सोती मिलीं। दीप जल रहा था। उस पर एक शलभ घूम रहा था। बाकी सब मौन था। वह
देखता रहा। रेशमी मशहरी में चन्द्रकला सो रही थी। उड़ते-उड़ते शलभ के पंख आग
में छूकर जल गए। बिहारी सिहर उठा। हृदय न जाने आज उसे एक दाह में घेरे क्यों
बहला रहा था। आज उसने एक उत्तराधिकारी जो गोद ले लिया था। बालक सुन्दर था,
भोला और कोमल । इसके मां-बाप को क्या इससे बिछुड़ जाने का दुख नहीं होगा?
बिहारी न जाने कब तक सोचता रहा। शायद जलघड़ी की बालू धसक गई थी, कटोरा डूब
गया था। आधी रात के गजर की आवाज गूंज उठी। बिहारी सो गया।
शाहज़ादा खुर्रम अब बागी था। कई वर्ष पूर्व शाहंशाह जहांगीर के बेटे खुसरों
ने भी विद्रोह कर दिया था। उस समय शाही सेना ने उसका पीछा किया।
खुसरो भागा और पंजाब पहुंचकर उसने फिर विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया। गुरु
अर्जुन ने उसकी सहायता की। किन्तु शाही सेना के सामने विद्रोही सेना उखड़ गई।
खुसरो को पकड़कर कारागार में डाल दिया गया। गुरु अर्जुन का भाई मुखबिर बना।
गुरु अर्जुन को प्राणदण्ड दे दिया गया।
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