जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
जेठ दोपहरी की धूप में छाया भी छांह में भाग जाती इसलिए वृक्षों की छाया तनों
रूपी भवनों में समा जाती। लुएं चलतीं, तब चन्द्रकला के पास पड़े बिहारी को
लगता मानो वसन्त के विरह में गीष्म उच्छ्वसित हो रही हो।
वर्षा आती। घनघोर मेह बरसता। मेघों में और अंधेरे में कोई भेद नहीं रहता। रात
और दिन दोनों मिलकर एक हो जाते। केवल चकवी और चकवे को देखकर ही उनका अनुमान
किया जाता। वियोगिनियों को पावस का बादल पृथ्वी पर अन्धकार फैलाता हुआ ऐसा
लगता मानो वह संसार को जलाता हुआ चला आ रहा हो। किन्तु वे बादल प्रेमी के
हृदय में प्रेमिका की स्मृति जगा देते। जब वे झड़ी लगाकर बरसते तो लगता मानो
वे धरती को स्पर्श किए ले रहे हों, मानो वे पृथ्वी को चूम रहे हों। वर्षा के
अन्धकार में अभिसारिकाएं छिप जातीं। ऐसी लगतीं मानो चंचल दामिनी नीले मेघों
में दिखाई देती।
यही वह वर्षा थी जिसमें एक बार इन्द्र ने क्रुद्ध होकर प्रलयमेघों से ब्रज को
डुबो देना चाहा था। उस समय गिरिधर ने गोवर्धन उठाकर प्रसन्न मन से सुरपति के
गर्व का हरण किया था। इस वर्षा ऋतु में कोई मानिनी व्यर्थ का हठ कैसे करती,
क्योंकि भले ही और गांठे इस ऋतु में कड़ी हो जाती हों, परन्तु मन की गांठ खुल
जाती है। प्रियाएं अपने प्रियतमों के कंठ में भुजाएं डालकर अट्टालिकाओं पर
चढ़ीं, मेघों को विद्युत की भांति देखा करती हैं। सभी स्त्रियां अपनी-अपनी
बुरी प्रवृतियों को छोड़कर अपने प्रियतमों के साथ आनन्द करने लगती हैं। यह तो
वह ऋतु ठहरी जिसमें वृद्ध भी सरस हो जाते हैं। कदंव पुष्पों की गन्ध को
सूंघकर अकेला कौन रह सकता है। विरहिणियों को यह बादलों
की झड़ी आग की लपटों से भी अधिक कष्टकर होती है। वह आग तो छूने पर जलाती, पर
यह तो आंखों से देखने-भर पर जला देता है।
शरद आती, मेघों का मण्डल टूट जाता। यात्री प्रत्येक दिशा में चलने लगते। शरद
के सूर्यरूपी सूरवीर राजा ने आकर सारे संसार में सुखद व्यवस्था कर दी किन्तु
उधर बगावत की खबरें आती थीं। वहां शांति कहां थी।
उसके लिए अव शरद ऋतु एक नायिका थी। उसके लाल-लाल कमल रूपी कर-चरण थे, खंजन
रूपी नयन और मुख था उसका चन्द्रमा-सा।
फिर आती हेमन्त।
सारे संसार के दम्पति रसलीन हो गए। ऐसे कि विछुड़ना ही उनकी मौत थी।
काम...सर्वत्र काम छा गया। अगहन भी क्या है! वह काम को धनुष तक नहीं चलाने
देता। रात विलास में अनन्त-सी लगती।
शिशिर ऋतु आती। उष्णता को कहीं ठौर न मिलता तो वह बिचारी दुर्ग समझकर
स्त्रियों के वक्षों में समा जाती। धूप, आग और रुई का बल भी कम हो गया।
आलिंगन के ताप का ही सहारा रह गया। धूप हो गई चांदनी-सी ठंडी। चकोरी भ्रम से
उसे टकटकी लगाकर देखने लगी।
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