जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
किन्तु विरहिन गांव में लुएं चलती रहीं, क्योंकि उसके दाह ने शिशिर को भी
गर्म कर दिया।
आता बसन्त।
न पवन प्रखर, न तप्त, न शीतल। पुलक से ही शरीर पसीजने लगते। पलास के लाल-लाल
फूल खिलने लगते। विरहिन के लिए तो यही सुखकर हो गया कि किसी पलास की डाल पर
चढ़कर जल जाए। भला ऐसे निर्धूम अंगार के और कहां सकने की आशा थी!
पथिकों को वे पलास फूले-फूले देखकर भ्रम होने लगता कि दवाग्नि जल उठी है और
वे चकित हृदय लिए घर लौटने लगते। वासंती सौरभ से भ्रमर तृप्त हो जाते और
आम्रमंजरी के मधुमय पराग तथा वसन्त वेला की सुमधुर गंध से सिक्त होकर
उन्मादिष्णु अन्ध मधुकरों के समूह ठौर-ठौर पर निंदियाते-से झूमने लगते।
प्रत्येक दिशा फूलों से भर जाती। ऐसा लगता जैसे ऋतुराज वसंत ने किसी वियोगिनी
को दण्ड देने को शर-पिंजर बनवाया हो। कोयल रूपी बटमार कामदेव से सम्पत्ति
पाकर प्रवासी यात्रियों को वन-मार्ग में देखकर क्रोध से लाल-लाल आंखें करके
कुहू कुहू रूपी कुहौ-कुहौ (मारो-मारो) का शब्द कर उठते । परकीया नायिका
गुलाबों की कलियों के खिलते ही अपने प्रेमी को कुंज में छोड़कर गृह की ओर चली
जाती।
यों ऋतुएं बीत चलीं। कभी अंधेरा छा जाता, कभी चांदनी आती। चन्द्रमा ऐसा लगता
जैसे आकार रूपी अगस्त्य वृक्ष की एक कली हो। प्रिया का मुख द्वितीया के
चन्द्रमा-सा अमृत किरणें बरसाता। विरहिन को चांदनी अंधेरी-सी लगती। यह चांदनी
नहीं, चन्द्रमा के उदय होने के भय से नीला अंधेरा ही मानो पीला पड़कर भय से
सफेद-सा दीखने लगता।
यों दिन बीतते जा रहे थे।
विहारी डूबा हुआ था।
उसे अपना भविष्य अब नहीं सताता।
पुष्पों के पराग रूपी परिधान पहने, सुकुमारता के कारण थकी-थकी-सी मकरंद रूपी
श्रमजल से अभिषिक्त, मन को सुख देने वाली वायु, नव-विवाहिता वधू-सी मंद-मंद
गति से आती।
आधी रात को प्रेयसी-वायु दिन की तपन को हरती और छाती से लगकर सोती।
मथुरा के मंदिरों के घंटे, जो कि सुलतानी काल में धीमे बजते थे, मुगल काल में
अकबर के समय से फिर प्रतिध्वनित होने लगे थे। जब बिहारी का मन ऊब जाता, वह
दर्शन करता, या हूण देकर इठलाती ग्रामयुवती को देख जाता।
कुंज रूपी संकीर्ण सघन मार्ग में रुकता हुआ, झंझास्वर करता, झुकता-झूमता,
मंद-मंद पवन रूपी अश्व अपने पैरों से धरती को खोदता, धूल उड़ाता हुआ चला जाता
और बह जाता।
दुष्ट व्यक्ति रूपी बढ़इयों ने दुर्वचन रूपी कुठार के द्वारा सदा ही प्रेम
रूपी तरु को काटने का यत्न किया, किन्तु वह थक गए, वह वृक्ष आज भी अपनी
शाखाओं सहित हृदयस्थली में विकसित होकर फूला हुआ था। वास्तविक प्रेम सच्ची
प्रेमिका में ही सम्भव था। शृंगार रूपी सरिता का स्रोत बहकर जितना तटवर्ती
भूमि को काटता जाता है उतना ही उतना प्रेम रूपी तरु का आलवाल निरन्तर दृढ़
होता है। प्रेम रूपी नगर का संविधान ही विचित्र है। क्षण-भर कोई बस लो। फिर
क्या वह और कहीं जा सकता है! यहां मारे हुए को ही बार-बार दण्ड मिलता है, और
मारनेवाला सदैव प्रसन्न रहता है। यों जब चन्द्रकला ऊंची डाली पर लगे पुष्पों
का चयन करती, तब तनिक उचकने के कारण उसके उरोजों के घेर की नोकों की छवि बाहर
निकल आती और गोरे-गोरे पखौरे दिखाई देते। बिहारी की दृष्टि उसकी त्रिबली पर
चढ़ते-चढ़ते अपने को लुटा आती। वह मौलसिरी के फूलों की माला को उसके कण्ठ में
पहना देता। चन्द्रकला के रूप को उजागर छवि के कारण माला में नवीन श्री भर
जाती। जब वे वन-विहार थे थक जाते तब घड़ी एक धूप से बचकर विश्राम करते। यमुना
के तट पर तमाल तरुओं के साथ मालती पुष्पों के सघन कुंज सुन्दर भ्रमरों के
समूह से ध्वनित होकर अत्यन्त प्रीति बढ़ाते।
चन्द्रकला झूला झूलती। बिहारी देखा करता। उसे ऐसा लगता मानो चन्दकला की पतली
कमर कहीं झटका न खा जाए।
दिन जाते, रातें जातीं। बिहारी की शुभ कल्पना संस्कृति रूपी सफेद कागज पर
काले-काले अक्षर जड़ती रहती।
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