जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
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गुजरात का अकाल मनुष्यों को बेघरबार करके चला जा चुका था। उसने लोगों की आंखें धंसा दी थीं, बाप बच्चे को खा गया था। हाहाकार और चीत्कार से गुजरात की धरती रो उठी थी। उन दिनों यातायात के साधन आज जैसे नहीं थे। इसलिए अनाज नहीं पहुंचाया जा सका और न पहुंचाने की किसी को फुर्सत थी। क्योंकि दरबारों को विलासों और सत्ता के लिए होते संघर्षों से छुट्टी नहीं मिलती थी। वैभव और कलाएं महलों के चारों ओर सीमित थीं। विशाल सेनाएं पलती थीं जो विद्रोहों का दमन करती थीं और किसानों पर मनमानी लगान बांधे जाते थे। उस समय भूमि पट्टों पर दी जाती थी। मौरूसी किसान भी बेगार में बांध लिए जाते। तिसपर उच्च वर्ण निम्न वर्णों पर अपना अधिकार रखते थे।
शासक वर्गीय हिन्दू और मुसलमान दोनों एक थे, इसलिए देश में धार्मिक दंगे नहीं थे, किन्तु मुसलमान तुरानी और ईरानी व्यापारी अभी तक हिन्दू व्यापारियों पर सवार थे। पंजाब के खत्री व्यापारी अब सिक्ख बनकर अपना अलग संगठन करने लगे थे। सर्वत्र भीतर-ही-भीतर असंतोष सुलग रहा था। जनता का स्तर बहुत गिर गया था, किन्तु फिर भी भारत जीवित था। इस समय वह जनता की भूमि में अपने सांस्कृतिक संगठन में लगा था, क्योंकि उसे क्योंकि उसे सुल्तानकाल की लूट से अपेक्षाकृत छूट मिल गई थी। मेवाड़ थका पड़ा था, वह युद्ध करते-करते विश्रांत हो गया था। वर्ण-व्यवस्था के बंधन ढीले पड़ गए थे। गांव और नगरों की युवतियां महलों में गोलियां बनकर बरसती थीं। राजा और प्रजा दोनों ही जगह स्त्रियों के कटाक्षों का मोल था। स्वकीया के स्थान पर परकीया का महत्त्व बढ़ गया था। पातिव्रत्य की खाट में वासना के खटमल पल रहे थे। चारित्रिक उत्थान दिखाई नहीं देता था। कवि मस्त थे। कवि समझते थे कि वे प्राचीन कालीन भोज आदि के समान राजाओं के आश्रित थे। तब भी शृंगार ही प्रमुख था। किन्तु भूल जाते थे कि भोज एक स्वदेशी सामंत था, जिसमें स्वाभिमान तो था ही, जो लोक का भी कल्याण करने की चेष्टा करता था। किन्तु इस समय के शासकों का लोकपक्ष बिल्कुल ही नष्ट हो चुका था। रनिवासों में छिपकर व्यभिचार चलता, क्योंकि राजा प्रायः तीन-तीन सौ, चार-चार सौ स्त्रियों को रखते और स्तंभन और पौरुष की दवाएं खाते। मानो एक उत्तेजित अवस्था में रहना ही उनका काम था। महाकवि तुलसीदास का वोया बीज लोक में रामराज्य की कल्पना जगा रहा था। प्रजा अकबर और जहांगीर को भोज और विक्रमादित्य की भांति नहीं मानती थी।
विहारी देखता। सुशीला और निरंजन कृष्ण की अपनी दुनिया अलग थी। वह धार्मिक स्त्री थी। उसकी प्रतिहिंसा शांत हो चुकी थी।
बिहारी भीतर गया। सुशीला बालक निरंजन का गाल चूम रही थी। बिहारी ने देखा। सुशीला ने उसे देख लिया। वह मुस्करा दी। बिहारी को लगा जैसे वह पति के अभाव को इस प्रकार पूरा कर रही थी। किन्तु पत्नी में मर्यादा थी। सुशीला और चन्द्रकला में कितना भेद था! चन्द्रकला का मुख छवि से मिश्रित था। नीचे अंचल में वैसा ही लगता जैसे चन्द्रमा का शुभ प्रतिबिम्ब यमुना के जल-प्रवाह में झिलमिला रहा हो। जब वह श्वेत रंग की सहज रेशमी साड़ी पहनती तो शोभा और भी बढ़ जाती। ऐसा लगता जैसे उसके शरीर का आलोक जल-चादर के दीप की भांति प्रकाशित हो रहा हो। यौवन की आभा के कारण उसका शरीर सोनजुही के समान प्रदीप्त होता रहता। जब वह कुसुंभी रंग की चूनर ओढ़ लेती, तब उसके तन की शोभा दोरंगी हो जाती।
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