जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
उसके नयन रूपी शिकारी, नीली साड़ी की ओट डालकर, हाथों के बल से, शांत अधरों
वाले होकर, चुपचाप बिहारी के मन रूपी मृग का अचूक शिकार कर डालते। जब वह जरी
के किनारे की साड़ी पहन लेती तब तो उसके गोरे रंग की कोई थाह ही नहीं मिलती।
ऐसा लगता जैसे शरद् काल के चन्द्रमा के चारों ओर विद्युत-मंडल सुशोभित हो रहा
हो। जब उसके महीन चूंघट में से उसके कान का गहना झुलमुली बाहर की ओर झलकता तब
ऐसी शोभा लगती मानो सागर से कल्पवृक्ष की डाल अपने पल्लवों के साथ लहरा रही
हो। जब वह स्नान करके मस्तक पर लाल बिंदी लगाती तब लगता कि बिखरे केशों के
बीच राहु ने अत्यन्त वीरता से शशि को सूर्य के साथ पकड़ लिया हो। और कभी
बिहारी
सोचता जैसे रवि और शशि ने मिलकर राहु को हराकर पीछे हटा दिया हो। जब रूप वह
ललाट पर रत्नजटित टीका लगाती तव लगता मानो सूर्य ही चन्द्रमंडल में आकर उसकी
कांति बढ़ा रहा हो। तब बिहारी सोचता कि बिंदी लगाने में जो लोग सौन्दर्य का
दस गुना बढ़ना कहते हैं, वह ठीक नहीं, यहां वह कई गुना बढ़ जाता है। वह
अंग-अंग में नगों से जगमगाती, ऐसी लगती जैसे दीपशिखा-सी देह थी। दीपक
बुझा देने पर भी घर में घना उजाला किए रहती। बिहारी, का प्यासा बिहारी उससे
मुग्ध रहता।
सुशीला को इन सब बातों से मतलब नहीं था। उसे अपने दान, धर्म, व्रत और निरंजन
से मतलब था। परन्तु एक बात में वह चौकस रहती। जब मायके वाले कुछ मांगने आते
तब वह कहती, “घर के मालिक से पूछ लें।"
तभी संवाद आया कि खानखाना फिर इज्जत पा गए हैं और दिल्ली लौट आए हैं। किन्तु
बिहारी नहीं गया। खानखाना फिर आगरा आ गए। शाहज़ादा खुर्रम को अभी भी शाहंशाह
की कृपा प्राप्त नहीं हुई थी। वही नूरजहां जिसने खुर्रम को अपनी भतीजी मुमताज
महल ब्याही और सोचा था कि उसे सल्तनत का मालिक बनाएगी, अब अपनी खास बेटी को
उसके भाई को व्याह कर उसके विरुद्ध हो गई थी, किन्तु निस्सन्देह खुर्रम
प्रचण्ड और योग्य था। उसके भाई उसकी तुलना में चतुर नहीं थे। फिर भी कुछ कहा
नहीं जा सकता था। अभी तक साम्राज्य का भविष्य स्पष्ट नहीं हुआ था। उसकी
विद्रोही सेनाओं को जब जरूरत होती तब खड़ी फसलें काट लातीं और लूटतीं और बढ़
जातीं। महावत खां साथ था।
कुछ महीने और बीत गए।
दिन बीतते देर नहीं लगती। मनुष्य का हृदय सदैव अपने भविष्य के प्रति जागरूक
रहता है, यह बात और है कि वह अपने व्यसनों में ऐसा डूब जाता है कि प्रयत्न
करके भी ऊपर निकल नहीं पाता। शाहंशाह जहांगीर का ऐसा ही हाल था। वे दुखी थे,
किन्तु उस गम को भुलाए रहते थे। सल्तनत एक नशा था, जिसके पीने के पहले मनुष्य
बौरा जाता था क्योंकि उसके अधिकारी की कल्पना ही कितनी सुखद थी। अमीर उस वैभव
को देखते और फिर उसे देखते ही रह जाते। तूरानी और ईरानी अमीर अभी भी भारत में
आकर
बसते थे।
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