जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
फिर दिल्ली से खबर आई कि खानखाना सदा के लिए संसार से चले गए। वह रहीम जिसका
मन कृष्णचन्द्र की ओर लगा रहता था चला गया। अकबर के समय के वे विद्वान थे,
इस्लाम की कट्टरता पर हंसते थे-फैजी, अबुलफजल ...उनकी परंपरा का अन्तिम
विद्वान सदा के लिए सो गया था।
बिहारी को लगा कहीं कुछ खो गया। याद आया, वे कहते थे :
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपुने हाथ।'
एक-एक चित्र याद आने लगे। आगरे के वे दृश्य फिर आंखों के सामने घूम गए। हृदय व्याकुल हो उठा।
उसे केशवदास की याद हो आई। कितना बड़ा कवि था। वह भी चला गया। सचमुच कोई अमर नहीं होता। तो क्या बिहारी भी चला जाएगा? अवश्य जाएगा! परन्तु क्या वह भी ऐसी ही अक्षय कीर्ति छोड़ कर जा सकेगा?"
प्रवीणराय सामने आ गई। बिहारी ने सोचा। 'चन्द्रकला, चन्द्रकला तो प्रवीणराय के पांवों की धूल भी नहीं।"
तो क्या वह इतने दिनों सेंवल से आशा लगाए तोते की तरह बैठा रहा? वह भीतर-ही-भीतर कातर हो उठा।
उधर नूरजहां की कुटिल गतियां हारने लगीं।
गर्मियां बीत चली थीं। शाहंशाह जहांगीर गर्मियों में कश्मीर चले जाते थे, क्योंकि आगरा और दिल्ली बहुत गर्म थे। लौटते समय वे भिम्बर में आकर रुके कि उनकी तबीयत बिगड़ने लगी। यह बात बिहारी तक नहीं पहुंची।
तभी भयानक समाचार आया कि भिम्बर में ही अस्वस्थ होकर आखिरकार परम विलासी शाहंशाह जहांगीर मर गए। उनको नूरजहां ने शाहदरे में दफन किया और उस पर मकबरा बनवाने लगी। नूरजहां ने साम्राज्य की चालों से हाथ खींच लिया।
किन्तु बिहारी प्रसन्न था। विलायत तक जिस मुगल साम्राज्य की ख्याति थी, जिसके दरबार में विदेशों के दूत आते थे, अब उसके आश्रयदाता के हाथ में आ गया था क्योंकि शाहज़ादा खुर्रम अब बादशाह शाहजहां बन गया था।
उसने तख्त पर आते ही अपने शत्रुओं से बदला लिया।
बिहारी पुलक उठा। अब उसे अधिक आशाएं थीं।
वह भीतर गया।
उसने कहा, “सुशीला हमें आगरे जाना है।"
"क्यों?"
"शाहज़ादा खुर्रम अब शाहंशाह शाहजहां है।"
"सच!!" सुशीला भी प्रसन्न हुई। बोली, “तुम्हें तख्तनशीनी के समय वहीं रहना चाहिए था।"
बिहारी को अपनी भूल का अनुभव हुआ। वह भेंट देने के समय वहां नहीं रहा। न उसने इनाम पाया। पर अभी देर नहीं हुई थी।
जब वे आगरे पहुंचे तब नगर में नया कोलाहल था। सब जगह नई शक्ति का वर्णन हो रहा था।
किन्तु भीतर-ही-भीतर कई पुराने अमीर जल रहे थे।
लोग तरह-तरह की बातें करते।
"मलिका चुप नहीं बैठेगी।"
"तो शहरयार क्या खुर्रम से मजबूत निकलेगा?"
"अरे, चुप-चुप खुर्रम नहीं, शाहजहां!"
अनेक अफसर बिहारी की खुशामद में आने लगे, यह देखकर स्वयं बिहारी को आश्चर्य हुआ। परन्तु उन अफसरों के मन में डर था। कहीं शाहजहां की नजर उन पर न पड़ जाए। अतः बिहारी को उन्होंने काफी भेंट लाकर दी, यह इसलिए कि वह उनकी कुछ सिफारिश कर दे।
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