जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
बिहारी ने मिलने की इजाजत मांगी। शाहंशाह उस समय व्यस्त थे। बिहारी ड्यौढ़ी
पर खड़ा रहा।
हुक्म हुआ : कल आ सकते हो
मन में वह सकुचाया। परन्तु और कोई चारा नहीं था। उसने स्वयं भी तो भूल की थी।
फिर अब वे शाहंशाह हैं। कितना काम होगा उनको। वह दूसरे दिन की आतुर प्रतीक्षा
करता रहा। अब वह भीतर पहुंचा शाहंशाह के सामने उसने जाकर कोर्निश की।
शाहंशाह मुस्कराया।
पूछा, “अच्छे हो कविराइ?"
कल का राजकुमार आज सम्राट् था।
बिहारी ने कहा, “इतने दिन बाद आगरा आने की हिम्मत हुई, दिन काट रहा था।"
शाहजहां के व्यवहार में असीम गौरव और अभिमान था। कहा, “तुम डर रहे थे
कविराइ?"
"मेरा मालिक चूंकि यहां नहीं था।"
शाहजहां प्रसन्न हो गया।
उसी समय वीरसिंह जू बुन्देले की मौत की खबर आई! जहांगीर की नाक का बाल था वह।
उससे नूरजहां शायद अभी भी उम्मीद लगाए बैठी थी। उसका बेटा जुझारसिंह इस समय
शाहजहां से डरा हुआ था, क्योंकि वीरसिंह शहरयार के पक्ष में था।
बिहारी ने कहा, “शाहंशाह! इजाजत हो तो अर्ज करूं?"
"कहो कविराइ।"
"शत्रु छोटा भी बुरा होता है।"
"क्यों?"
"शाहंशाह खटमट क्या करता है? नींद बिगाड़ता है।"
शाहजहां खुश हुए। बोले, "तो तुम यही कहते हो?"
बिहारी ने कहा :
कहिहैं सबु तेरो हियौ, मेरे हिय की बात।"
शाहजहां प्रसन्न हो उठे बिहारी को खिलअत मिली। उसने बार-बार सलाम किया।
लोगों ने उसे बधाई दी।
शाहजहां अपने दल को प्रसन्न करता रहा था। उसके चतुर नयनों ने देख लिया कि बिहारी काम का आदमी था। बिहारी इसको नहीं समझ सका।
वह घर आ गया।
सुशीला ने खिलअत की सुनी तो प्रसन्न हुई। बोली, “शाहंशाह खुश तो ।
हुए?"
"हां," बिहारी ने कहा।
पर मन भारी-भारी था।
क्या खटक रहा था भीतर? बिहारी समझ नहीं पा रहा था। शायद बिहारी और भी अधिक मर्यादा प्राप्त करना चाहता था। किन्तु क्या यह उसकी भूल नहीं थी? क्या ऐसा हो सकता है? वह तुरक नहीं, हिन्दू था।
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