जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
|
3 पाठकों को प्रिय 147 पाठक हैं |
कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
शाहजहां बहुत ऊपर उठ गया था। उस तक पहुंचना अब कठिन था। यदि बिहारी किसी
हिन्दू राजा का आश्रित होता तो संभवतः उसका सम्मान अधिक हो सकता था।
यह, बिहारी अब शाहंशाह शाहजहां के विषय में क्या सोच रहा था। सच है, आज उसने
पहले का-सा समय नहीं दिया, किन्तु बिहारी का सम्मान नगर में तो पहले से कहीं
अधिक बढ़ गया था। अब और भी अधिक अमीर-उमरा उसके पास आते थे। बिहारी के दोहों
की कितनी अधिक प्रतिलिपियां होती थीं जो दूर-दूर तक भिजवा दी जाती थीं। लेखक
लगे ही रहते थे।
बिहारी ने एकान्त में लिखा कि उसका मन सन्तुष्ट नहीं था। किन्तु न जाने क्यों
उस दोहे को रखने का उसे साहस नहीं हुआ। उसने उसे दीपक पर जला दिया। यह वह
क्या कर रहा था? क्या वह कायर था? किन्तु हठात् ध्यान आया यह वह क्या व्यर्थ
की बात सोच रहा था?
और कोई चारा नहीं था। आश्रयदाता से भी कभी कोई मान कर सकता है! जैसे स्वकीया
कितने ही मान कर ले, किन्तु पति के सामने आने पर उसे हंसी आ ही जाती है, उसी
प्रकार आश्रित को अपने आश्रयदाता के सामने होना चाहिए।
बिहारी ने तब यह अनुभव भी नहीं किया कि उसके भीतर उसके कवि-हृदय के स्वाभिमान
की गली संकरी हो गई थी।
और तब उसे ध्यान आया। सबको अपनी सीमा में रहना चाहिए। आंखें फाड़कर देखने ही
से तो आंखें बड़ी नहीं कहला सकतीं।
फिर शाहंशाह से क्या सम्मान! वह तो सबसे ऊंची जगह है।
पर फिर याद आया।
क्या वह मनुष्य नहीं होता? क्या उसको तुच्छ मानने वाले नहीं हो सकते? वह तो
किसी साधू का काम था। तुलसीदास थे। वे किसी की चिंता नहीं करते थे। क्या था
उनका जीवन! विरक्त थे वे। संसारी तो नहीं थे।
और तभी बिहारी का मन अतीत में घूम आया।
स्वामी नरहरिदास की याद आई। स्वयं शाहंशाह जहांगीर उनके दर्शन करने गया था तो
वे कितने बड़े आदमी थे। क्या बिहारी उनके समान था? नहीं। बिहारी का मन छोटा
हो गया।
किन्तु जब कपूर से सिंचित पान खाया, मन का भार कम हो गया। वह सब कुछ भूल जाना
चाहता था।
परन्तु आज मन अस्थिर हो चुका था। आज उसे अतीत याद आ रहा था।
वह भीतर गया। एकान्त में लेट गया। आंखें मूंद लीं। पता नहीं कब आ गई वह।
सुशीला ने सिर पर हाथ फेरा।
|