जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
स्पर्श से ही
बिहारी समझ गया। तो वह स्त्री उससे दूर नहीं है?
"सुशील!"
वह सिहर उठी।
बहुत दिन बाद यह स्वर सुनाई दिया था उसे।
बोली नहीं।
बिहारी ने दुहराया, “सुशील!"
"क्या?" उसने धीमे से कहा।
बिहारी कुहनी टेककर बैठ गया।
"सुशील, मैं कहां से चला था!"
"जहां से आंख खुली थी।"
बिहारी ने उसकी आंखों में झांका।
"अब कहां जाना है?" उसने पूछा।
"वहां तक, जहां तक आंखें नहीं मुंद जातीं!"
"तो यह सब झूठ है?"
वह बोली, “यह तो संसार है स्वामी! सब गिरधर और राधा की माया है।"
“और हम!'' बिहारी ने कहा, "मैं ही यह नहीं मानता था अभी तक सुशील!
अच्छा, तुम भी यही सोचती हो न?"
"और सोचूं भी क्या! भाग्य के खेल हैं यह।"
"भाग्य के!" उसने दुहराया।
वह वहीं बैठी रही।
वह उसकी जांघ पर सिर रखकर सोने लगा।
आज कितने दिन बाद वह सो रहा था इस तरह! क्या वह इस स्त्री के प्रति अनुरक्त
है? क्यों नहीं? प्यार वह अब भी इसे ही करता है। बाकी सब वैभव है, दैहिक है,
काव्य और शृंगार है।
वह सो गया।
वह जगा तो देखा वह चली गई थी।
मन टूक-टूक हो गया।
वह उठा। कहां गई होगी?
देखा, वह निरंजन के पास सो रही थी।
बिहारी को लगा, सब कुछ सूना-सूना-सा था। सुशीला के लिए अब वही नहीं था। उसके
निरंजन को भी तो उसकी जरूरत थी।
बिहारी चन्द्रकला की ओर बढ़ा, पर उसे लगा कि वह माला बासी हो चुकी थी।
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