जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
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मलिका मुअज्जमा मुमताज बेगम की मृत्यु हो चुकी थी और शाहजहां ने ताजमहल का निर्माण प्रारम्भ कर दिया था। बुन्देल-विद्रोह समाप्त हो चुका था।
जबरन भारतीयों को हुगली में ईसाई बनाने वाले पुर्तगाली व्यापारी या तो मुसलमान बना लिए गए, और जो नहीं बने गुलाम बना लिए गए थे। दक्कन में फिर सुलतानों ने सिर उठा दिया था। स्वयं शाहजहां इस विद्रोह को कुचलने गया हुआ था। अहमदनगर का सुलतान हार गया। गोलकुण्डे के कुतुबशाही सुलतान ने सिर झुका दिया इस युद्ध में शाहंशाह शाहजहां के साथ शाहज़ादा आलमगीर था।
बिहारी अपनी वृत्ति पाने के लिए इस बार स्वयं जोधपुर चल पड़ा। वह ऊब गया था बैठे-बैठे।
जोधपुर पहुंचने की खबर महाराज को पहले ही पहुंचा दी गई थी। बिहारी के ठहरने का उन्होंने बहुत ही सुन्दर प्रबन्ध कर दिया था। विशाल भवन था। जनानखाने में सुशीला ठहरी। चन्द्रकला को अलग भवन दिया गया। बिहारी ने अपने लिए अलग भवन चुना।
महाराजा जसवन्तसिंह महल में थे।
बिहारी ने जुहार की।
बिठाया। कुशल-क्षेम पूछी।
बिहारी ने भेंट दी। महाराज ने इनाम।
एक मास बीत गया।
बिहारी एक दिन बैठा था कि महाराज का मुंहलगा नौकर मोहन आया और महल में बुला गया। बिहारी पहुंचा।
राव कल्याणसिंह शालिहोत्र के ज्ञाता थे। वे राज्य में बड़े सम्मानित वृद्ध व्यक्ति थे। स्वयं भी कुछ लिख लेते थे।
बिहारी ने उन्हें देखा तो प्रणाम किया। उन्होंने बिहारी को आदर से बिठाया।
इधर-उधर की बातें हुईं, फिर राव राजा घोड़ों की चर्चा पर उतर आए। उनका यह सौहार्द्र प्रकट करता था कि उन्होंने उसे अंतरंग मान लिया था और वे बिहारी को देख प्रसन्न हुए।
उनकी दाढ़ी ऊपर कढ़ी रहती। शाम को अफीम वे नित्य खाते थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि बिहारी ब्राह्मण था तो उठकर चरण स्पर्श किए और बोले, "अभी धर्म तो नहीं उठ गया।"
बिहारी का मन गद्गद हो गया।
"समय का फेर है," वृद्ध ने फिर कहा, “दिल्ली-आगरा की और बात है, जोधपुर जोधपुर है।"
कुछ देर पीछे महाराज के सामने बिहारी ले जाया गया। महाराज ने प्रणाम किया। बिहारी ने संस्कृत में आशीर्वाद दिया।
महाराज ने सुना तो प्रसन्न हो गए।
बिठाया।
खूब सत्कार किया।
बोले, “आ गए कविराइ। अच्छा किया।"
आए महीना-भर हो चुका था, पर महाराज को फुर्सत अब ही मिली थी।
"आज्ञा दें।" बिहारी ने कहा।
"कैसी आज्ञा! अब शाहंशाह को दक्कन से चैन कहां। अब यहीं रहें।"
फिर बोले, मैं भी लिखता हूं न? आप सहायता दें।"
फिर बोले, “वही नाटक फिर हो रहा है! खुर्रम को जहांगीर ने दक्कन भेजा था। शाहजहां भेज चुका है आलमगीर को। क्या ध्यान में आता है! आलमगीर चतुर है! है न?"
"अभी तरुण है," बिहारी ने कहा।
"राजपूतों के लिए यह सब एक हैं," महाराज ने कहा, “पर समय की बात है। आप यहीं रहें। रहेंगे न?"
"महाराज की आज्ञा है तो मैं कौन.."
सुशीला ने सुना और देखा।
"फिर?"
“अब जब तक आज्ञा मिले।"
वह बाहर आ गया।
जोधपुर में दूसरी बात थी। बिहारी स्वतंत्र हो गया।
महाराज ने सारे प्रबन्ध कर दिए। यहां सुन्दरियों का अभाव नहीं था। बिहारी ने देखा-चन्द्रकला इनके सामने कुछ भी नहीं थी। सुन्दरियों ने उसे घेर लिया।
अब एक वैद्यराज बिहारी की सेवा में भी रहते। महाराज अक्सर बिहारी को अपने रंगमहल में बुलाते।
दिन पर दिन बीतते चले गए। नृत्य होते, गीत होते। महाराज कभी-कभी बिहारी को अपने हाथ से पान खिलाते। महाराज के भाई दुर्गादास परमवीर थे।
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