जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
वे शिकार में रहते। वे भी बिहारी का बड़ा सम्मान करते। बिहारी स्वयं पंडित
था, इसका उन पर बड़ा प्रभाव था।
बिहारी वैभव और विलास में डूबा रहता। नायिका के नेत्र कामदेव रूपी महामुनि से
योग की युक्ति सीखकर प्रिय में अद्वैतता करने की इच्छा रखकर उधर कानन-सेवी हो
गए। इधर बिहारी का मन उन नयनों का सेवक हो गया। राधा और कृष्ण की क्रीड़ाएं
हो उठीं।
सुशीला के पास एक ही काम था। वह निरंजन कृष्ण को लिए रहती। अब वह बड़ा हो गया
था। वह उसे पंडित से पढ़वाती। उसकी देखभाल करती। उसके मन के अभाव अपने को
उसके सुख-दुख में निहित कर देना चाहते थे। पुत्र भी बड़ा आज्ञाकारी था। कभी
पिता अर्थात् बिहारी के पास जाकर बैठता। बिहारी भी उससे प्रसन्न रहता। किन्तु
सुशीला को इससे जैसे मतलब नहीं था। उसके दान-दक्षिणा, व्रत-नियम अखण्ड थे।
परेशान थी तो चन्द्रकला। बिहारी से भेंट कभी-कभी होती। परन्तु वैभव की उसे
कमी नहीं थी।
उधर बिहारी और महाराज दोहे रचते। दस बिहारी लिखता तो एक महाराज भी लिखते, फिर
बिहारी उसे मांजता। जब महाराज प्रसन्न हो जाते तो वे बिहारी को कुछ नया इनाम
देते। कभी कोई नई गोलिन उसके यहां भेज दी जाती। बिहारी को नायिकाओं के उन
नेत्रों ने जीत लिया था। जिन्होंने बलपर्दूक कामदेव के बाणों को भी हरा दिया
था। उनके नेत्र हिरनी के नेत्रों से भी अधिक सुन्दर थे, जिसमें श्वेत, श्याम
और लाल तीनों ही रंग झलकते थे। उन्हें देखकर मछली जल में जा छिपती थी और कमल
लज्जित हो जाता था। वे नयन थे!
वे इतने चतुर थे कि भरे भवन में सबके सामने संकेत से ही सब बातें कह जाते थे।
कहना, नटना, रीझना, खीझना, मिलना, खिलना, लजाना-उन नैनों से क्या बचा था।
उस दिन संध्या हो चली थी। प्रकोष्ठ में कंवल जला दिए गए थे। नृत्य समाप्त हो
चुका था।
सामने एक ग्रंथ रखा था। महाराज और बिहारी दो ही वहां थे। बाकी सब हटा दिए गए
थे।
"महाराज, ग्रंथ पूर्ण हुआ।"
बड़ा ग्रंथ था-अलंकार ग्रंथ।
"धन्य है।" महाराज ने कहा। बिहारी ने सिर झुकाया।
महाराज ने ललचाई दृष्टि से देखा।
"कवि होना तो बड़ी बात है।"
"महाराज भी तो कवि हैं।"
"हैं, नहीं हैं, बराबर हैं।"
"क्यों! यह सब और किसका लिखा है?"
"मेरा इसमें कितना-सा होगा?"
बिहारी ने उनका नाम लिख दिया।
"क्या करते हो?"
"जिसकी वस्तु है उसी को लौटा रहा हूं।"
महाराज का सिर झुक गया।
इस घटना को सुशीला भी नहीं जान सकी कि वैभव महाराज के पास था, किन्तु अमरता
बिहारी के पास थी।
अब बिहारी का मन फिर ऊब चला था।
तो किधर जाए वह ?
उसे याद आया।
सुशीला लेटी थी।
बिहारी ने कहा, “चलो सुशील।"
"कहां?" उसने खड़े होकर कहा।
बिहारी उसका हाथ पकड़कर बैठ गया।
बैठ गई वह भी।
"मथुरा।"
वह चौंकी।
"क्यों?"
"अब यहां कब तक रहोगी?"
"क्यों, किसी ने कुछ कहा?"
"वृत्ति लेते हैं हम। कविता लिखते हैं। हमसे कोई कुछ क्यों कहेगा? हमें
सौन्दर्य से मतलब है। हम तो वाणी के सेवक हैं।"
"ठीक है, फिर चलें क्यों?"
“यात्रा में अनुभव होता है। एक जगह बंधकर पानी भी गंदला जाता है।'
"तो किधर चलोगे?"
"राह में जयपुर पड़ेगा।"
"महाराज जयसाह के यहां?"
"हां, पुराने आश्रयदाता हैं, प्रसन्न हैं मुझपर ।"
"तो फिर चलो। मैं भी ऊब गई थी।"
वे जयपुर चल पड़े। महाराज ने अपूर्व सम्मान के साथ विदा दी और कहा, "वह बात
भूल जाना कविराइ, जो मैंने आलमगीर के बारे में कही थी।"
बिहारी को महाराज की उस राजनीतिक स्मरण-शक्ति पर आश्चर्य हुआ जो इस विलास में
भी इतनी जागरूक थी। बिहारी ने कहा, "ब्राह्मण क्षत्रिय का पहले है महाराज!
मुगल का बाद में। अब आप भी इसे भूल जाइए।"
"वचन देता हूं।" महाराज ने कहा।
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