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जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


अनन्तकुंवरि की इच्छा पूरी हुई। कविराइ यहीं रहें। वे राज्य के लिए आवश्यक हैं।
"जो हुक्म महाराज!" बिहारी ने कहा।
इस तरह कुछ समय निकल गया।
बिहारी ने फिर अर्ज की।
महाराज उस दिन महारानी के महल में थे। उन्होंने वहीं बुलाया।
'क्यों, जाते हैं?"
"महाराज की जैसी आज्ञा हो।"
महारानी ने कहलवाया “जाने की जरूरत नहीं, ब्राह्मण से गौरव बढ़ता है।
आप यहीं रहें।"
"आपको हर दोहे पर," महाराज ने कहा, “एक-एक अशर्फी भेंट देंगे।
आप तो मुक्त और निश्चिन्त होकर काव्य रचें। आपको कोई कष्ट नहीं होगा।"

"कोई बात हो तो कह दें।" फिर महारानी ने कहलवाया, “उसे छिपाकर न रखें।
ब्राह्मणी को कष्ट हो तो बताएं। पुत्र का भी भविष्य यहीं सुरक्षित कर दिया जाएगा।"
बिहारी ने सिर झुका लिया।
अब फिर वही जीवन हो गया। किन्तु बिहारी अब प्रायः एकांत में रहता।
चन्द्रकला नहीं समझती। बिहारी में वह उत्कट प्यास थी, वह कहां गई।
सुशीला भी समझने की चेष्टा करती। पर कुछ समझ नहीं पाती।
बांके को लगा जैसे मालिक के मन में बहुत बड़ी हलचल थी। जैसे भीतर-ही-भीतर उनमें कोई द्वन्द्व-सा हो रहा था।
कुछ दिन बाद युवराज का जन्म हुआ।
तोपें छूटने लगीं।
स्त्रियों के मंगल गीत गूंजने लगे।
चारों ओर कोलाहल और उन्माद-सा छा गया।
सेना ने सलामी दी
और कवि बिहारी ने नाम रखा-रामसिंह।
महाराज प्रसन्न हो गए।
महारानी ने बुलवाया।
दक्षिणाएं दीं। और जोराबरसिंह से कहवाया कि बिहारी ने पुत्र दिया सो उसके लिए यहीं रहें और स्वयं शिक्षा दें उसे। ऐसा बना दें, जैसे महाप्रतापी राजा भोज थे।

बिहारी ने उस महत्त्वाकांक्षिणी स्त्री की मन-ही-मन प्रशंसा की।
घर आया।
महाराज ने फिर शाम को अपने रंगमहल में बुलवा लिया। वहां वेश्याएं थीं। नृत्य-गीत, मदिरा।
बिहारी बह चला।
छवि-दर्शन से उन्मत्तता आ गई। रूप दर्शन रूपी मदिरा का पान भी अत्यन्त विषम और प्रखर हो गया। इससे न तो उन्मत्त व्यक्ति का मन ही टला, न उसे नींद ही आई, और न समय की सीमाएं ही बीत पाईं। वह क्षण-भर के लिए तो छवि-दर्शन से तृप्त होता, परन्तु फिर स्वस्थ नहीं हो पाता।

चन्द्रकला कहती कि वह अकेली थी। किन्तु बिहारी किसी के गाल पर चिपकी हुई एक गुलाब की पंखुड़ी को मन-ही-मन कहता कि इसके कपोल और पाटल की पंखुरी के रंग, गंध तथा सुकुमारता सभी एक-से हैं।
कभी उसकी दृष्टि कुचों की पहाड़ी पर चढ़कर अत्यन्त थकित होकर, मुख की चाह करके उधर ही चल पड़ती, किन्तु बीच में ही वह चिबुक के गड्ढे में जा गिरती और वहां से फिर टल नहीं पाती।
बाहर राज्य की सीमा पर ठग यात्रियों को फांसी लगाकर मार डालते और गड्ढों में डालकर लूट का माल ले जाते, भीतर बिहारी के नेत्र रूपी बटोही नायिका की छवि की चकाचौंध को ही भोर का प्रकाश समझकर मार्ग में अंधेरे में ही चल पड़ते।.रूप रूपी ठग उन्हें पकड़कर मधुर हास रूपी फांसी लगाकर मार देते और फिर चिबुक रूपी गड्ढे में ले जाकर डाल देते। पर गड्ढे में पड़कर भी मन कब ठिकाने पर रहता। वह तो रात-दिन उड़ता रहता। जब ढिठौना लगने से मुख सम्पूर्ण चन्द्रमा बन जाते, बिहारी विभोर हो जाता।

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