जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
लगता जी पर भव्य महल था।
सारे आनन्द यहां पर उपस्थित थे। सारा प्रासाद देखकर आंखें चौंधिया जातीं।
बिहारी से वहीं राज्य के बहुत बड़े-बड़े ठाकुर मिलने आते। ऐसी थी बिहारी की
शान।
संगमर्मरी कुण्ड में स्वच्छ जल भरा रहता और बिहारी बैठा देखा करता-
उसमें सुन्दरियां जल-क्रीड़ा किया करतीं।
बिहारी के दोहे बनते गए।
अशर्फी गिरती रहीं।
और बड़ा वैभव अपार होने लगा।
सुशीला फिर जनानखाने में थी। अब उसका निरंजन कृष्ण हो गया था। अत्यन्त सुशील
बना दिया था वह पुत्र, क्योंकि सुशीला ने अपने जीवन के सारे अभावों की पूर्ति
उसी में कर लेने की चेष्टा की थी।
उधर वासना-भरा चकोर अपलक दृष्टि से नायिका के मुख को देखता रहा-सौन्दर्य की
चरम सीमा को देखता हुआ सब कुछ भूल जाता।
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तीन वैद्य सदैव उनके लिए रहते जो उनकी अपार शक्ति को संचित रखने के लिए रत्नों और हीरों को फूंक-फूंककर भस्म बनाया करते। यौवन की सरिता बह रही थी। उसमें सब डूबे थे। इसके अवगुणों को भी कौन पूछता।
राधा और कृष्ण की लीला चारों ओर गूंजती। अलक छवि रूपी छड़ी द्वारा प्रेरित किए गए नेत्र रूपी तुरंग पर चढ़कर मन चंचल हो जाते और अपनी सुध-बुध भूल जाते।
बिहारी फिर डूब गया।
फाग में गुलाल-भरी मुट्ठियों के खुलते ही लोक-लाज और कुलीनता की मर्यादाएं खुल जातीं और चंचल नेत्र और हृदय एक साथ ही गुलाल के रंग में रंग जाता। प्रेम के जल से अभिषिक्त वे अपने-आपको आनन्द में विभोर पाते।
सुन्दरियां कुण्ड में नहातीं। नहाकर शृंगार करतीं तो हाथों से केशों को समेटकर भुजाओं को पीठ की ओर मोड़े हुए और शिरस्थ अंचल को पखौरों की ओर डालकर वह किसका मन नहीं हर लेतीं। जूड़े के साथ-साथ मन को भी बांध लेंती।
सुन्दरियों के शरीर पर आभूषण इसलिए सुशोभित होते मानो दर्शक बिहारी के नेत्रों की चरण-धूलि को, अंगों पर चलने के पूर्व पोंछने के लिए विधाता ने सोने के पायदाज बना दिए हों।
वह जो सुशीला का पुत्र था, अब बड़ा हो चला था। बिहारी उस ओर से निश्चिन्त था। वह सब प्रबंध सुशीला करती।
महाराज जव बिहारी के दोहे सुनते, तो फड़क उठते। बिहारी का पांडित्य नारी के नखशिख में ढलकर एकाग्र हो गया। नारी! नारी के अंगों का वर्णन सौन्दर्य का विकास बन गया। बाहर की प्रकृति भी अब महलों में आ गई। नारी के शरीर की धुति का सम्पर्क पाकर मोतियों की माला कर्पूर मणि जैसी हो गई। केशर और चंदन के अंगराग फीके पड़ गए।
यों जीवन बीतने लगा। तभी एक दिन महाराज के पास, आगरे होकर, आलमगीर का पत्र आया। उस समय अनन्तकुंवरि चौहानी के दिए काली पहाड़ी नामक ग्राम में बिहारी गया हुआ था। उसे सूचना मिली। तुरंत आ गया।
पता चला कि आलमगीर ने बलख पर आक्रमण करने के लिए महाराज जयसिंह को अधिनायक बनाया था।
महाराज जयसिंह ने सेना को आज्ञा दे दी।
बिहारी से वे उसी कमरे में मिले जिसमें बिहारी का तैलचित्र ढंगा था।
यह चित्र रानी अनन्तकुंवरि चौहानी ने तब बनवाया था। जब बिहारी ने महाराज को मोह-निद्रा से जगाया था।
महाराज प्रसन्न थे।
बिहारी ने आमेर में देवी के लिए भैंसा कटने के स्थान के पीछे झांका-पुराने मीणाओं के खंडहर पड़े थे। कब था न जाने उनका राज्य। हजारों साल पहले।
उसने निगाह हटा ली।
देखा, महाराज कुछ सोच रहे थे। उन्होंने कृष्ण को मन-ही-मन प्रणाम किया।
महाराज जयसिंह मीराबाई के कृष्ण की उपासना कर लेते थे। उस मंदिर को महाराज मानसिंह ने बनवाया था। वे उस मूर्ति को मेवाड़ से लूट लाए थे।
"आलमगीर शाहज़ादा ने आज्ञा भेजी है महाराज?"
"हां, कविराइ।"
बिहारी ने कहा, “जिस पराक्रम से आपके पूर्वजों ने जगत् में ख्याति पाई है उसी से फतह हो महाराज।"
"ब्राह्मण कहेगा तो अवश्य होगी।"
'कविराइ ने कहा है फतह होगी'-रानी ने सूचना बाहर भेज दी। सैनिक उत्साहित हुए। जयध्वनि की।
डंके पर चोट पड़ी और सेना पहाड़ से उतरकर चली गई, जैसे इतिहास में सभ्यताएं लुप्त हो जाती हैं बलख का युद्ध शाहजहां की महत्त्वाकांक्षा का प्रमाण था। वह उत्तर के भूभाग को जीतना चाहता था। बुखारा के राजवंशीय झगड़ों का वह लाभ उठाना चाहता था। मुराद पहले जीतकर आ चुका था, किन्तु बाद में आलमगीर सूबेदार नियुक्त हुआ था। फिर बगावत हो गई थी
बिहारी लौट आया। उसके पास समाचार आने लगे।
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