उधर खबर आई कि शाहजहां के चारों पुत्रों में होड़ हो रही थी। दारा, शुजा,
आलमगीर और मुराद चारों ही राजसिंहासन पर बैठना चाहते थे। एक बार फिर बिहारी
ने उथल-पुथल देखी।
तभी भयानक संवाद आने लगे।
महाराज जयशाह ने कहा, "कविराइ! क्या करना उचित है! दारा ठीक रहेगा न? वेदान्त
का पण्डित है। पता भी न चलेगा कि हिन्दू और तुरक कौन है।
उसने अल्लोपनिषद् बनवाया है।"
बिहारी ने कहा, “परन्तु श्रीमंत! वह हठी है। आलमगीर है चतुर। और जब युद्ध है
तो चालाक की जय की भी सम्भावना है। आप पक्ष लें तो भीतरी।
प्रकट न करें। दारा हो या आलमगीर, दोनों मुगल हैं। चक्रवर्तित्व आमेर का
हो तो युद्ध में कूदें।"
महाराज ने कहा, "ठीक कहते हैं। अभी देखना ही उचित होगा।"
बिहारी ने कहा, “महाराज! हमारे हिन्दुओं में तो राम और भरत के-से आदर्श हैं।
भाई-भाई से नहीं लड़ता। कलियुग में ऐसा हुआ। महाराज क्षमा करें तो कहूं।"
“कहिए!"
"महाराज! घमण्डी मेवाड़ी हैं। देखिए, हिन्दुत्व के कारण ही शक्ति सिंह फिर
महाराणा प्रताप से जा मिले। मुगलों में ऐसा धर्म कहां? हिन्दू हिन्दू हैं।
आपने हिन्दुआनी की रक्षा की हे। आपातकाल में सब कुछ हुआ है। आपके वीर
पूर्वजों में बुद्धि से काम लेकर हिन्दू को बचाया है। महाराज! मैं ठीक कहता
हूं?"
"हां, कविराइ!'' महाराज ने कहा, “सब समय का फेर है। मेवाड़ का अहंकार ही
हिन्दुआनी के विनाश का कारण है।"
बिहारी का मन व्याकुल हो उठा। उसने अपने भाव को प्रकट नहीं होने दिया।
कहा, “महाराज आप समय देखें। आपके पूर्वजों से मिलकर ही अकबरशाह ने मुगल राज्य
को दृढ़ बनाया था। आपके बिना आज भी मुगल राज्य नहीं चलेगा।
जो कुछ है, आप ही पर निर्भर है।"
"मैं हिन्दुत्व का नाश नहीं होने दूंगा कविराइ। जिस दिन मुगल दरबार जयपुर की
उपेक्षा करेगा, वह अपने पैरों में अपने-आप कुल्हाड़ी मार लेगा।"
बिहारी ने कहा, 'महाराज! अकबर शाह चतुर था। उसने समझ लिया था कि तुरक और
हिन्दू का भेद उसने मिटा दिया था। उसी का प्रभाव आज तक रहा है। किन्तु
अन्नदाता! अपराध क्षमा हो, शाहंशाह शाहजहां का मन इधर हिन्दुओं के प्रति साफ
नहीं रहा।"
औरंगजेब के मरते ही जयपुर राज्य की यह आग भड़की थी। जयसिंह तृतीय ने मुगल
विध्वंस के लिए छिपकर यज्ञ करवाया था। परन्तु जब पंडितों ने उससे अश्वमेध
का घोड़ा छोड़ने को कहा तो वह घबरा गया और यज्ञ समाप्त हो गया। जब औरंगजेब
ने शिवाजी के संबंध में जयसिंह की बात की उपेक्षा और जजिया लगाने पर जयसिंह
के विरोधात्मक पत्र की भी उपेक्षा कर दी, जयपुर राज्य मन-ही-मन मुगलों के
विरुद्ध हो गया। परन्तु वीरता के अभाव और अपने को बचाए रखने की चालाकी के
कारण जयपुर प्रकट रूप से दिल्ली राज्य से नहीं लड़ा। अतः इतिहासकारों ने भी
इस घटना का विवरण नहीं दिया है किन्तु यह सत्य है। मैंने प्रमाण देखे हैं।