जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
महाराज ने कहा, “मैं देख रहा हूं कविराइ, परन्तु बलख के युद्ध ने बताया है कि
इन म्लेच्छों की भीड़ फिर भी हिन्दुस्तान पर हमला करने की हौंस रखती है। मुगल
जाने-पहचाने हैं।'
बिहारी ने कहा, “अकवर शाह की नींव पड़ी रहे तो ठीक है। परन्तु महाराज वह कैसा
आदर्श था कि भेद नहीं थे। यह भेद फिर क्यों उठ रहे हैं? आलमगीर शाहज़ादा
क्योंकर कट्टर मुल्लाओं की ओर हो गया!"
महाराज सोचने लगे।
बिहारी सोच रहा था।
आखिर यह जीवन था क्या? युद्ध, हत्या, लोभ, घृणा, और यह सब किसलिए? वैभव के
लिए। कितने दिन का है यह जीवन जो मनुष्य यह सब करे?
वह बूढ़ा हो गया था। वासना जवाब दे रही थी। अब मन में बहुत ही सात्त्विक भाव
आने लगे थे और साथ में आता था प्रायश्चित्त।
'प्रजा दरिद्र हो गई है महाराज!" बिहारी ने कहा, “आपकी छाया में वह दरिद्रता
नहीं।"
"मेरे राज्य में पालन होता है कविराइ। मुगल दरबार के व्यापारी ईरान और तूरान
ले जाते हैं सब कुछ। और इस तरह वहां का कलावन्त और वाजीगर भूखा रहता है। हम
उन्हें वृत्ति देते हैं।"
"तो महाराज आज्ञा हो।"
महाराज ने कहा, "अपने तक रखना सब बात!"
"शिरोधार्य!"
राजा विलासी तो था किन्तु दूरदर्शी और चतुर भी था। उसके भीतर हिन्दुओं का
स्वाभिमान था। अब भी समय नहीं था कि वह अपनी बात प्रकट कर देता।
मेवाड़ के प्रति अभी तक उसमें आग सुलग रही थी वह दारा को चाहता था, क्योंकि
दाराशिकोह हिन्दुओं का मित्र था। मुल्ला उधर उसे काफिर कहते फिरते थे। वह जो
एक शांति इतने दिनों से छा रही थी, इस समय शाहजहां की बीमारी के कारण बन गई
थी उत्तराधिकार के लिए एक छीना-झपटी और इसमें उसको लोग विलीन होते देख रहे
थे।
एक सपना उजड़ता जा रहा था।
जब घर पहुंचा, बिहारी ने देखा सुशीला पलंग पर पड़ी थी। निरंजन कृष्ण द्वार पर
था। बहू बैठी सास के पांवों को सहला रही थी।
बिहारी ने पूछा, “क्या हुआ?"
बहू ने घूँघट खींच लिया।
"अम्मां बीमार हैं!" पुत्र ने कहा।
बिहारी ने देखा। सुशीला मुस्कराई।
'हे कृष्ण!'
'क्या कर रहे हो?'
'जो कभी बीमार नहीं पड़ी...'
आशंका से हृदय दहल उठा।
'यह सब मैंने क्या किया?'
'यह किसके पाप का फल था?'
'सुशील!'
"स्वामी! बच्चे यहीं हैं।'
वह सकुचा गया।
"कैसी हो?"
"वेदना बढ़ने लगी है।"
"कैसा दर्द है?'
"बेचैनी बहुत है।"
"निरंजन!"
"दद्दा!"
"वैद्यराज को नहीं बुलाया?"
"बुलाया है।"
बाहर से बांके ने आकर सूचना दी, "वैद्यराज आ गए।"
उन्होंने नब्ज देखी। सब कुछ कहा-पूछा और बाहर चले गए।
बिहारी ने कहा, "ठीक है न?"
'सब ठीक है," वैद्यराज ने कहा, "भगवान के दरबार में क्या ठीक है, क्या ठीक
नहीं है, कौन जानता है!"
बिहारी को झटका लगा!
सुशीला! वह भी!
आज उसे आश्चर्य हुआ, क्या सुशीला उसे इतनी अधिक प्यारी थी! कितना जीवन बिताया
था उसके साथ!
"मन को-धीर दीजिए।" वैद्य ने चलते हुए कहा।
'संध्या को भी आइएगा।"
"जो आज्ञा।" वैद्य चला गया।
बिहारी बैठा रहा बाहर। भीतर बहू को कष्ट होता। वही सब काम कर रही थी।
निरंजन कृष्ण की आंखों में पानी-सा भर आता था बार-बार। उससे मां का दुख भी
नहीं देखा जाता था।
सांझ-छाया घिर आई। मंदिरों के घंटे बज उठे और फिर झालरें भी बजकर मौन हो गईं।
वैद्यराज आए। फिर देखा। पूछा, “कब से सोई हैं?"
"अभी घंटा हुआ होगा।" धीरे से निरंजन ने कहा।
"सोने दो। यह औषधि देना।"
उन्होंने एक शीशी, छोटी-सी निकालकर दी।
बिहारी द्वार पर दीखा।
वैद्य ने देखा। प्रणाम किया।
वैद्य बाहर आया। मुस्कराया। बिहारी की जान में जान आई। कहा, “सब ठीक है न?"
"उन्हें अब किसकी कमी है।" वैद्य ने कहा।
बिहारी ने कहा, “औरों को भी बुलवा लीजिए।"
बिहारी साथ में उठ आया बाहर। वैद्यों में जो दोष होता है वह इन वैद्य महाराज
में भी था। दूसरे वैद्य को बुलवाने का नाम सुनकर माथे में बल पड़े।
किन्तु ध्यान आया कि वे किससे बातें कर रहे थे। तुरन्त बदलकर बोले, “बुलवा
लीजिए। सोने में सुहागा।"
वैद्य लोग आने लगे। देखते और बाहर जा बैठते। परस्पर विचार करते, किन्तु इलाज
करने वालों में एकमत होना कठिन ही होता है। अन्त में उन्हें एक निर्णय करना
पड़ा। औषधियों के नाम तय हुए। पूरी दक्षिणा प्राप्त करके वे चले गए।
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