जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
शाह जयसिंह चुपचाप आमेर में आ बैठे और चौकन्ने होकर समय व्यतीत करने लगे।
उनके मन में सन्देह था। किन्तु औरंगजेब के शाहंशाह होते ही उन्होंने सिर झुका
लिया।
बिहारी का मन अब बाहर नहीं लगता था। वह सुशीला के पास बैठा रहता।
रात हो जाती। वह बैठा ही रहता।
बहू आ जाती।
वह बाहर आ जाता।
नींद नहीं आती।
बांके कहता, “सोइए मालिक! आधी बीत गई।"
"नहीं बांके।" बिहारी कहता, “आधी जब बीत रही थी, तब किसे ध्यान था, अब तो
तीन-चौथाई से भी अधिक बीत गई।"
"छिः मालिक! क्या कहते हैं!"
बिहारी हंसता।
बांके चौंक उठता।
मालिक को क्या हो रहा था! यह रूप तो उसने पहले नहीं देखा था।
रात हो गई थी।
बहारी सिरहाने बैठा था। दीपकों का उजाला धीमा-धीमा-सा फैल रहा था।
चन्द्रकला अपने कक्ष में भजन करती रहती। उसका जी अब किसी बात में नहीं लगता। बिहारी से मिले उसे महीनों बीत गए थे। यह दिन काट रही थी। आयु भी कैसे-कैसे चमत्कार रखती है ।
"सुशील!' बिहारी ने कहा।
बहुत दिनों बाद वही सम्बोध।
उसने आंखें खोलीं।
"कैसी तबीयत है।"
वह नहीं बोली।
"सो रही हो?"
"नहीं।"
“जी कैसा है?"
सुशीला के नेत्रों में आंसू से आ गए।
"रोती क्यों हो?"
"रोती नहीं!” उसने धीमे से कहा, “अपने सुहाग का घमण्ड करती हूं कि अब जब कि मैं जा रही हूं तुम मेरे पास हो।"
"मैं क्या कभी दूर था?"
"तुम मेरे हृदय में थे।"
"तुम मुझसे रूठ गई हो! मैं तो तुम्हारा हूं।"
"तुम सदा मेरे थे, मैं जानती थी। तुम वैभव में फिर गए थे। जो सब करते हैं तुमने भी किया। वैभव में सब यही करते हैं। तुम पुरुष हो। तुम्हें दोष किसका!"
'तुम मुझे क्षमा कर दो सुशील।"
"नहीं, स्वामी! मैं क्षमा करूं? नरक जाऊं? नहीं! मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूंगी, तुम चिरजीवी रहो। मेरा-तुम्हारा साथ जन्म-जन्म का है।"
बिहारी ने कहा, "मैं भूल गया था। तुम नहीं भूलीं।"
“स्त्री कभी भूलती है?"
निरंजन कृष्ण ने आकर पुकारा, “अम्मां!"
बिहारी का मन भर आया! उसके स्वर में कितनी ममता थी।
सुशीला के मुख पर अपार तृप्ति फैल गई।
बिहारी देखता रहा। निरंजन ने सुशीला का हाथ अपने हाथ में ले लिया, जैसे वह उसे छोड़ना नहीं चाहता था।
इसी समय चोबदार ने सूचना दी, "कविराइ को महाराज ने याद किया है।"
बांके ने कहा, "कहता हूं।"
भीतर आया। दृश्य देखा तो सहम गया।
"क्या बात है बांके?" बिहारी ने कहा।
"चोबदार महल से आया है।"
"क्या कहता है?"
"इसी समय महाराज ने महल में याद किया है।"
"इस समय!"
"हां, मालिक!"
"कह दो, मैं नहीं जा सकता।"
बांके ने कहा, "मैं यही कहना चाहता था, पर पहले पूछना जरूरी समझा।"
सुशीला ने अचानक आंखें खोल दी।
कहा, "कौन है?"
"कोई नहीं," बिहारी ने कहा।
'बांके!"
"हां, मालकिन!"
"कौन आया है?"
बांके सकपका गया।
बिहारी ने कहा, “महल से चोबदार आया है। तुम आराम करो।"
"क्यों आया है?"
"महाराज ने बुलाया है।"
"तो जाओ न?"
"लेकिन तुम!" बिहारी ने अनुनय किया। उसके स्वर में एक क्षमा याचना भरी बेबसी थी।
"नहीं, हो जाओ," सुशीला ने कहा, “निरंजन का भविष्य देखना है।"
बांके खड़ा रहा।
बिहारी ने कहा, “कह दे मैं आता हूं।"
"पालकी तैयार कराऊं?" बांके ने कहा।
"नहीं, घोड़ा कसवा दे। साईस तैयार रहे। पालकी में आने-जाने में देर लगेगी।"
बिहारी चला गया।
"निरंजन!" सुशीला ने कहा।
निरंजन ने उसके दोनों हाथों में अपना मुंह छिपा लिया। बहू ने घूँघट ऊंचा कर दिया।
जयसिंह अपनी एक नई रानी को लिए रंगमहल में पी रहे थे। राजनीति का संकट सदैव राजपूत को दुस्साहसिक बना देता था। एक हाथ में तलवार एक में नारी-यही उसका जीवन हो जाता था उस क्षण। पता नहीं कल क्या हो। महाराज मिले। तपाक से कहा, “आ गए कविराइ! देखो यह आभूषण हैं।
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