लोगों की राय

जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो

मेरी भव बाधा हरो

रांगेय राघव

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1470
आईएसबीएन :9788170285243

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

147 पाठक हैं

कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...


नाक का यह है। यह है कान का।"
बिहारी का मन खट्टा हो गया। सुशीला मृत्युशय्या पर पड़ी थी। बिहारी
ने कहा :

"अजौ तरयौना ही रह्यौ, सुति सेवत इक रंग।
नाकु बासि बेसरि लह्यो बसि मुकतनु के संग।"

अब तक तुमने भ्रुति (कान या वेद) का ही अध्ययन किया है अतः तरयौना (कान का आभूषण = या तरे नहीं) बने रहे। मुक्ताओं (मोतियों = मुक्तों) के साथ रहकर बेसर (जैसा तुच्छ नाक का आभूषण) (नाकवास = स्वर्गवास) प्राप्त कर गया। अलंकार, श्लेषरूपक और व्यतिरेक हैं। विवेचकों का मत है कि इस दोहे में सगुणो-पासक ने किसी वैदिक भक्त के ऊपर व्यंग्य किया। किन्तु मुझे यह नहीं लगता। यह बिहारी ने अपने दैनिक जीवन पर व्यंग्य किया है कि उसने अच्छी सुहबत नहीं पाई। बिहारी ने आत्म-निंदा के और भी दोहे लिखे हैं।

महाराज चौंक उठे।
“अपनी कहता हूं महाराज!"
"क्यों! इतने दुखी हो?' उनके माथे की रेखाएं सिकुड़ गई थीं।
बिहारी ने कहा, “महाराज, निरंजन की मां का अन्त समय है।"
महाराज हिल उठे।
"फिर भी आप आ गए?"
“आज्ञा थी न महाराज?"
"कौन गया था बुलाने?” महाराज ने सहसा गरजकर कहा। मुड़े और बोल उठे, “अरे! फिर तुम क्यों आ गए। तुरन्त लौट जाओ! ब्राह्मणी अकेली होगी।"
नौकर-चाकर महाराज का स्वर सुनकर भागे आए।
"कौन गया था कविराइ को बुलाने?"
"चौबदार करनसिंह।"
"उसे बन्द कर दो,” महाराज ने कहा।
बिहारी ने कोई ध्यान नहीं दिया। वह लौट पड़ा। एक बार फिर उसने सिल्ला देवी को प्रणाम करके मन-ही-मन प्रार्थना की। जब वह घोड़े पर चढ़ा तब कोई छींका। मन टूक-टूक हो गया। उसने भगवान का नाम दुहराया। सोचा, छींक तो पराए घर जाने में वर्जित है। वह तो अपने ही घर की ओर जा रहा था।
बिहारी जल्दी-जल्दी लौटा।
ड्यौढ़ी पर घोड़ा छोड़ दिया। संग भागा-भागा आया था साईस। पसीने से लथपथ था।
उस समय आकाश में तारे खूब छिटक आए थे।
द्वार पर बांके रो रहा था।

बिहारी के पांव ठिठक गए। क्या उसे देर हो गई थी?
वह यह क्या देख रहा था!
धीरे से पुकारा, “बांके!"
उसने आंसू-भरी आंखें उठाईं।
बिहारी ने देखा और कहा, “क्यों?"
उसने हाथ से इशारा किया।
बिहारी भीतर चला गया।
अभी आंखें खुली थीं। वह स्तब्ध थी। केवल सांस उल्टी खिंच रही थी।
धरती पर लेटी थी सुशीला।
"वैद्यराज को बुलाओ।" वह चिल्लाया।
किन्तु निरंजन ने इशारा कर दिया। उसके हाथ में गंगाजल था। सारे नौकर-नौकरानियां वहीं खड़े थे। सबके मुख मलिन थे। पुरानी दासी अब पांवों के.पास बैठी रो रही थी।
निरंजन कृष्ण ने कान के पास मुंह ले जाकर कुछ मंत्र-सा कहा। पंडित गीता के श्लोक पढ़ने लगे।
सब प्रबन्ध इसी बीच हो गया था। बिहारी की चेतना जैसे डांवाडोल थी।
वह कुछ समझ रहा था, कुछ नहीं।
बांदियां बड़ी जोर से रोईं। बहू धाड़ें मारकर रो उठी। निरंजन चिल्लाया,
“अम्मां. 55.5.5..."
स्वर जैसे फैलता चला गया। अन्तिम पुकार थी सुशीला की सांस रुकी, फिर रुकी, फिर रुक गई और होंठों पर एक पुण्यमयी मुस्कान फैल गई। वह मानो जीत गई थी।
बिहारी ने हाथों से आंखें ढक लीं।
पण्डित पढ़ते रहे-
"नैनं छिंदन्ति शास्त्राणी,
नैनं दहति पावकः।"
किन्तु बिहारी जैसे सुन रहा था। सब कुछ उसे बहता-सा दीख रहा था, सब कुछ. दूर-दूर से सुनाई दे रहा था।
प्रातःकाल भीड़ें इकट्ठी होने लगीं।
राज्य के बड़े-बड़े पदाधिकारी, राव, उमराव, वैश्य और पंडित आ गए।
बिहारी स्तब्ध धरती पर बैठा रहा। वे औपचारिक भाषा में अनेक बातें कहते रहे।

निरंजन एक ओर चुप था। घर में रुदन उठता था।
स्वयं महाराज पधारे।
बांके ने कहा, “महाराज आए हैं! पधारे हैं।"
बिहारी ने सूनी आंखों से देखा। महाराज भी धरती पर बैठ गए।
चिता जली और बुझ गई। एक इतिहास का अन्त हो गया। फिर राख समेटकर जगह धो दी गई। धरती का कोई चिह्न बाकी न रहा क्योंकि अस्थियां गंगा के विराट् प्रवाह में डालने भेज दी गईं। किन्तु सुशीला नहीं गई। वह बाप और बेटे के मन में जी उठी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai