फिर बिहारी बाहर नहीं निकला। पुत्र ने सिर मुंडाया और लोग फिर आने लगे। अब
बिहारी को सब में एक सूनापन-सा लगता। पहले वह मुड़कर घर की ओर नहीं देखता था।
किन्तु उसने देखा कि बहू ने सब संभाल लिया था। निरंजन ने बाहर का सब प्रबन्ध
कर लिया। रिश्तेदारों को पत्र भेज दिए गए। और फिर माटी के बाद आत्मा के
प्रबन्ध का प्रश्न सामने आया। उसमें भी पंडित लगे।
क्रियाकर्म पूरे हुए। हजारों ने पुए खाए और मरने वाली को आशीर्वाद दिया
क्योंकि उसने उनके मन को तृप्त कर दिया था।
कोलाहल शांत हो गया। सब कुछ फिर ढर्रे पर आ गया। चन्द्रकला बनारस चली गई।
गंगा तीर पर रहने के लिए। घर में अब पुरानों में बांके था।
जब मन ऊब जाता तब मंदिर में जाकर दर्शन करता और कई घंटों तक बिहारी चुप बैठा
रहता। फिर बांके याद दिलाता, तब उठता।
जब कभी महाराज बुलाते तो बिहारी महलों में चला जाता, परन्तु अब बिहारी के
दोहों में वेदना की पीड़ा था। उसमें अपने जीवन के प्रति एक प्रायश्चित्त की
भावना थी।
देश की परिस्थिति बदल रही थी। अकबर के साथ जो शुरू हुआ, वह अब नहीं रहा।
औरंगजेब की नीति दूसरी थी। उसने चुन-चुनकर अपने शत्रुओं को मार डाला।
साम्राज्य में घोर विलासिता थी। अपव्यय था। करों के बोझ से मालगुजारी बढ़ी और
खेती नष्ट हो रही थी। किसान खेतों को छोड़कर देहात से शहरों में भागे आ रहे
थे, क्योंकि राज्य सारी फसल छीन लेता था। सड़कों और घाटों के महसूलों में
व्यापार में अटकाव आ रहा था। एक ओर राज्य की चुंगियां थी, दूसरी ओर जमींदारों
की। सैनिक मुफ्त का माल उड़ाते थे। वे युद्ध में जाते तो ऐय्याशी का आडम्बर
साथ चलता। जागीरों में रियाया पिसी पड़ी थी। चारों ओर उपद्रव सिर उठा रहे थे।
बिहारी सुनता।
असंतुष्ट सरदार और कवीले सिर उठाने लगे थे। औरंगजेब अलाउद्दीन को अपने सामने
आदर्श बनाकर रखता था। मुल्ला कहते थे कि अकबर की नीति का फल था। हिन्दू किसी
भी भांति विश्वसनीय नहीं थे।
क्या था यह जीवन! बिहारी सोचता।
औरंगजेब हिन्दुओं के विरुद्ध था। वह साम्राज्य में उत्पात का कारण ही
हिन्दुओं को समझता था। और राजपूत राजा अभी तक चुप पड़े थे। जाटों के समुदाय
गंगा-जमुना के प्रदेश में आ बसे थे। उन्होंने भी उत्पात आरम्भ कर दिया। आगरा
प्रान्त में गोकुल नामक जाट नेता प्रचण्ड हो रहा था।
बिहारी सोचता, वह ब्राह्मण कुल में जन्मा। किन्तु उसने किया क्या?
यह तृष्णा उसे कहां लाई?
तीरथ करने से क्या लाभ? मन को भटकाने से क्या? राधा और कृष्ण ही तो अंत्य
हैं। उन्हींसे क्यों न प्रेम किया जाए? उनके चरण-चिह्नों से ब्रज के
क्रीड़ा-कुंजों के स्थलों पर अनेक प्रयाग के तीर्थ बनते रहते हैं।
यह अधिकार कवि बिहारी को कहां था!
अब वह चाहता था कि उनके मन में विहार करने वाले वे प्रियतम कृष्ण इस प्रकार
बसे रहें कि यह देखता रहा। सिर पर किरीट, कटि-प्रदेश में पीताम्बर, हाथ में
वेणु और कण्ठ में माला सुशोभित पड़ी रहे और वह उसे देखता-देखता अपने को भूल
जाए।
आज तक के इस संसार जीवन में क्या मिला? भला इस वैभव की ज्वालाओं से क्या हुआ?
वह केवल जलता रहा।
चाहे कोई करोड़ों रुपए जोड़ ले, या कुछ भी करे, किन्तु असली सम्पत्ति तो
भगवान कृष्ण ठहरे। वे ही तो अन्त में मनुष्य की विपत्तियों का नाश करते हैं।
वह शाह के साथ था। आज वह बंदीगृह में पड़ा था। यह कैसा भाग्य था! स्वयं ही
उसे क्या मिला! कुछ नहीं!