जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
वृद्धावस्था ने कृष्ण के प्रति आसक्ति जगाकर दूसरी आसक्ति को भगा दिया।
बिहारी ने जीवन-भर राधा-कृष्ण की रति गाई, किन्तु अब उसमें वही विश्वास नहीं
था कि उसे भक्ति कह देता।
किन्तु कृष्ण के प्रति यह तन्मयता बढ़ चली। अनुरागी चित्त की गति वह स्वयं
नहीं समझ पाता था, ज्यों-ज्यों श्याम के रंग में डूबता जाता था वह उज्ज्वल
होता जाता था।
आडम्बर व्यर्थ हो गए। जपमाला, छापा, तिलक, किसी से भी काम नहीं चलता। कच्चा
मन तो कांच है जो कभी भी टूट सकता है, परन्तु असली ज्ञान होने पर ही तो
भ्रम-नाश होता है।
क्या उसका भ्रम दूर हो गया था?
गुरुदेव के शब्द याद आए, 'बिहारी, लोक का कल्याण कर!'
क्या किया उसने!
सरस्वती की सेवा की। क्या यह सब व्यर्थ था?
तभी दक्षिण में मराठा शिवाजी के उत्थान की खबरें आने लगीं
निरंजन ने कहा, “दद्दा, यह तो भयानक वीर है।"
“तूने सुना?"
"मुगलों को हिला दिया उसने।"
"कौन कहता है?"
"शिवाजी की गाथाएं कौन नहीं जानता।"
किन्तु जब बिहारी सोचने लगा, ध्यान नहीं जमा। औरंगजेब के प्रति उसका हृदय
घृणा से भर गया। फिर भगवान में मन लगाया। कहा, “हे भगवान! मेरे गुण-अवगुण मत
देखो। ऐसे तो मेरा उद्धार नहीं होगा। तब फिर कैसे होगा वह?
मुझे करुणा दो। वह करूंगा जिससे तुमने पापियों का उद्धार किया था।"
बिहारी का मन भीतर-ही-भीतर डांवाडोल हो गया।
"हे भगवान! मैं हजार बार यही विनती करता हूं कि आप जिस रूप में भी अपने दरबार
में ही-शरण दें। मैं तो आपके ही चरणों में पड़ा रहने में सुख मानूंगा। जो
नित्य प्रति एक होकर रहते हैं, वर्ण और मन को एक कर चुके हैं, वे राधा-कृष्ण
युगल ही सौन्दर्य के धाम हैं। दो नेत्र उन्हें देख नहीं सकते।। असंख्यों
नेत्र भी उस छवि को नहीं पा सकते।"
यों बिहारी के दिन कटते रहे।
फिर संवाद आया कि जोधपुर के महाराज जसवंतसिंह को औरंगजेब दक्कन भेज रहा था।
निरंजन ने कहा, “आपने सुना?"
"क्यों भेज रहा है बादशाह?"
"शिवाजी के विरुद्ध।"
"बगावत जो की है।"
"स्वातन्त्र्य का प्रतीक है वह, हिंदुवानी का।"
बिहारी सोचता रहा। फिर कहा, “जसवंतसिंह जाएंगे? हिन्दू को हिन्दू मारेगा?"
"और वह भी औरंगजेब जैसे कट्टर के लिए। आपने सुना है?"
"क्या?"
"हिन्दुओं पर जजिया लगाना चाहिए-मुल्ला कहने लगे हैं, क्योंकि शाही खर्च पूरे
नहीं पड़ते।"
"तो क्या फिर धारा उलटेगी?"
निरंजन चला गया।
बिहारी ने पुकारा, "बांके!" कोई नहीं बोला।
फिर उसने पुकारा, “बांके!"
"हां, मालिक।"
"बांके! यह संसार क्या है, जानता है?"
"मैं क्या जानूं मालिक।"
"तभी तू सुखी है।"
'हां, मालिक!"
"यह सारा संसार कांच जैसा है। है न?".
"ऐं मालिक?"..
"एक काम करेगा?"
"हुक्म दें माालिक"
"जोधपुर जाएगा?
"आप हुक्म देंगे और मैं न जाऊंगा?''
"तू बूढ़ा हो गया है और मेरे पास तुझसे बढ़कर कोई विश्वास का आदमी नहीं है।"
बांके यह सुनकर पुलक उठा। बिहारी ने एक पत्र देकर कहा, "तो मेरा यह पत्र ले
जाकर महाराज को देना।"
बांके ने सिर झुकाया।
"महाराज से एकांत में कहना बिहारीलाल कविराइने भिजवाया है। ध्यान रखना और
किसी को पता न चले।"
बांके-चला गया।
बिहारी अब दिन-रात मंदिर में रहता। मन में कोई इच्छा नहीं थी। सब कुछ
सूना-सूना-सा लगता था। कभी-कभी सुशीला मुस्काती दिखाई देती और कभी केवल राधा
और कृष्ण दिखाई देते। वह उन्हें अनिमेष दृष्टि से देखता रहता।
कई दिन बीत गए।
बांके घोड़े से उतरा।
"क्या हुआ?' बिहारी ने कहा।
"राजा का मन फिर गया। बार-बार पढ़ते रहे। भैया दुर्गादास को सुनाया और दोनों
रो दिए।"
जयपुर में किसीको पता नहीं चला। तब बिहारी ने दोहा लिख दिया :
वाज पराये पानि पर तू पंछीन न मारि।।"
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