इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
वास्तव में समस्त भारत में हिन्दुओं में यह कथा प्रचलित थी कि दुर्ग, प्रासाद, भवन तथा मन्दिर समुद्र अथवा नदी के तट पर निर्माण किए जाएँ। कच्छ के समुद्र के किनारे प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर और वाराणसी में गंगा नदी के किनारे अनेक भव्य स्नान-स्थल तथा मंदिर एवं भवन, ये सब इसके उदाहरण हैं। हिन्दुओं की नदी अथवा समुद्र-तट पर मन्दिर आदि बनवाने की इस परम्परा के आधार पर हिन्दू निर्माता उन भवनों के रिसने तथा बाढ़ से भरने से बचाने की कला में निपुण हो गए थे। मुसलमान अत्याचार और लूट में व्यस्त रहने के साथ-साथ अधिकांशतया अशिक्षित थे और वे मूलतया रेगिस्तानी परम्परा के अनुयायी होने के कारण जलयुक्त स्थान अथवा किसी नदी के तट पर भवन बनाने के अभ्यस्त नहीं थे। वे तो हिन्दू ही थे, जो भवन-निर्माण करने से पूर्व जहाँ कहीं जल की समुचित व्यवस्था न हो वहाँ जलाशय का अवश्य निर्माण कर लिया करते थे। उदाहरणार्थ हम अजमेर (अर्थात् अन्ना सागर) और फतेहपुर सीकरी में हिन्दुओं द्वारा बनाए गए विशाल सरोवरों का उल्लेख कर सकते हैं। बाद में, अकबर के शासनकाल में, फतेहपुर सीकरी पर अधिकार करनेवाले मुसलमान यह जानते नहीं थे कि विशाल सरोवरों के बन्धों की व्यवस्था किस प्रकार की जाती है, इसलिए वे सूखते गए। सरोवर के सूख जाने के कारण ही १५ वर्ष उस फतेहपुर सीकरी में, जिसे अकबर ने हिन्दुओं से छीना था, रहने के उपरान्त उसे यह छोड़नी पड़ गई। जो पाठक इस बात पर विश्वास करते आए हैं कि वह अकबर ही था कि जिसने फतेहपुर सीकरी को बसाया था वे हमारी 'फतेहपुर सीकरी हिन्दू नगर है' नामक पुस्तक पढ़ें।
दूसरा महत्त्वपूर्ण साक्ष्य सहसा १९७३ के आरम्भ में संगमरमर भवन के सम्मुख स्थित उद्यान की खुदाई करने से उभर आया है। यह इस प्रकार हुआ कि फव्वारों में कुछ गड़बड़ हो गई। तब यह उचित समझा गया कि धरती के नीचे लगी मुख्य नली का परीक्षण किया जाय। जब इस नली के स्तर तक धरती खोदी गई तो पता चला कि उससे पाँच फुट नीचे कुछ गड्ढे बने हुए हैं। इसलिए उतनी गहराई तक खुदाई की गई। और वहाँ उपस्थित सब लोगों को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहां वैसे ही फव्वारे बने हुए हैं, जिनके विषय में तब तक कुछ ज्ञात ही नहीं था। विशेष महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उन फव्वारों को ताजमहल से जोड़ा हुआ था। इससे यह निश्चित है कि वर्तमान भवन शाहजहाँ से पूर्व भी विद्यमान था। वे छिपे फव्वारे न तो शाहजहाँ ने बनवाए थे और न उसके उत्तराधिकारी अंग्रेजों ने ही। अतः ये शाहजहाँ-पूर्व के युग के थे, क्योंकि वे ताजमहल से जुड़े हुए थे, अतः यह स्वाभाविक है कि वह भवन भी शाहजहाँ के पूर्व का ही था। यह साक्ष्य भी, इसलिए हमारे उस निष्कर्ष की ही पुष्टि करता है कि शाहजहाँ ने मुमताज़ को दफनाने के लिए हिन्दू मन्दिर प्रासाद को हथिया लिया था। पुरातत्त्व विभाग के जिस अधिकारी की देख-रेख में खुदाई का यह कार्य हुआ उसका नाम श्री आर. एस. वर्मा है, जो अपने विभाग में सुरक्षा सहायक हैं। इसी अधिकारी को एक अन्य खोज का भी अवसर सुलभ हो गया। एक बार जब वे छड़ी लेकर तथाकथित मस्जिद और गोलाकार वराण्डे के निकट संगमरमर-भवन के पश्चिमी छोर पर घूम रहे थे तो उनको लगा कि जिस स्थान पर वराण्डे में उनकी छड़ी लगी है वहाँ नीचे से कुछ विचित्र ध्वनि आ रही है। उन्हें लगा कि पत्थर को हटाना चाहिए। और उनको आश्चर्य हुआ जब पत्थर हटाकर उन्होंने देखा कि वह प्राचीन द्वार है जिसे स्पष्टतया शाहजहाँ ने बन्द करा दिया था। उसके नीचे पचास सीढ़ियाँ थीं जिनसे उतरकर नीचे गलियारा था। वराण्डे के नीचे की बड़ी दीवार खोखली थी। इससे यह स्पष्ट है कि इसके पूर्वी छोर पर भी इसी प्रकार का द्वार तथा सीढ़ियाँ होंगी। और यह तो केवल ईश्वर ही जानता होगा कि इस प्रकार की कितनी दीवारें, कक्ष और मंजिलें बन्द करवाई गई होंगी, जो कि संसार के ज्ञान में नहीं आई। ताजमहल के सम्बन्ध में जो खोज हुई है, इससे उसकी अपूर्णता अथवा दयनीयता का आभास मिलता है। लगता है कि न तो किसी ने ताजमहल की भूमि पर पुरातत्त्व-सम्बन्धी कोई खोज की है और न इस सारे विषय पर किसी ने परिश्रमपूर्वक कोई अध्ययन ही किया है। किन्तु बाहरी राजनीतिक, साम्प्रदायिक तत्त्व, इतिहासकारों एवं पुरातत्त्वविदों को ताज की मौलिकता के सम्बन्ध में कोई ठोस प्रमाण प्राप्त करने में बाधा अवश्य पहुँचाते हैं। इस प्रकार की शैक्षिक कायरता की प्रबल रूप में भर्त्सना होनी चाहिए।
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