इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
वाल्डिमर हानसेन अपनी पुस्तक 'दि पीकौक थ्रोन' (होल्ट, रिचार्ड एण्ड विंस्टन द्वारा प्रकाशित) के पृष्ठ १८१-१८२. पर लिखता है कि "यहाँ तक शीघ्रातिशीघ्र १६३२ में मुमताज़ की मृत्यु की पहली वर्षगाँठ पर, मकबरे का आँगन, जो अभी बन ही रहा था, शामियाने से ढका हुआ था जिसमें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए शाही खानदान के साहबजादे, बुजुर्गवार और शेख, उलेमा तथा हाफिज जैसे धार्मिक जन जिन्हें सारी कुरान कंठस्थ थी, वहाँ एकत्रित हो सकें। शाहजहाँ ने अपनी उपस्थिति से उस अवसर की शोभा बढ़ाई थी और बेगम का पिता आसिफखान शाही दरबार के विशेष निमन्त्रण पर उपस्थित था। मकबरे पर एक बहुत बड़ा हार चढ़ाया हुआ और आमन्त्रितों का मिष्ठान्न और फलों से स्वागत किया गया, कुरान की आयतें वातावरण को गुंजरित कर रही थीं और मृतात्मा के लिए प्रार्थना की जा रही थी। सैकड़ों सहस्र रुपए दान किए। बाद के वर्षों में अन्य पुण्य तिथियों पर जब कभी भी शाहजहाँ आगरा में होता जहानआरा तथा हरम की अन्य महिलाओं के साथ उस अपूर्व भवन में उपस्थित रहता था। महिलाएँ ऐसे अवसर के लिए बने हुए केन्द्रीय मंच पर बैठती थीं और जन-सामान्य की नजरों से बचे रहने के लिए लाल कपड़े की कनात तथा परदे से उस मंच को ढक दिया जाता था। दरबारीगण टैंट के नीचे बैठते थे।"
उपरिलिखित उद्धरण पर हम अनेक प्रकार से टिप्पणी करना चाहते हैं। प्रथमत: हानसेन तथा अन्य भी जब उस महिला को मुमताज़ महल कहते हैं तो वह गलत है। उसका नाम जैसा कि बादशाहनामे में उल्लिखित है वह है मुमताज़-उल- जमानी। उसके नाम के साथ महल प्रत्यय धोखे से बाद में जोड़ा गया जिससे कि प्राचीन हिन्दू शब्द तेज-महा-आलय उपनाम ताजमहल से उसकी समता की जा सके।
द्वितीयत: यह तथ्य कि प्रथम वर्ष से ही मुमताज़ की पुण्यतिथि उस स्थान पर बड़ी धूमधाम से मनाई जानी लगी, इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि शाहजहाँ ने उसे बनाया होता तो वह स्थान खुदा हुआ होता जो कि वह नहीं था। यहाँ तक कि आज भी यदि वहाँ पर अधिक लोगों को इकट्ठा होना हो तो कड़कती धूप अथवा कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए टैंट और कनातों का प्रबन्ध करना पड़ता है।
हानसेन तथा अन्य लेखकों के उल्लेख, कि मकबरा निर्माणाधीन था, संगत सिद्ध होते हैं यदि उन्हें उचित प्रकार से ग्रहण किया जाए। वह इस प्रकार कि जो जमीयतखाना कहा जाता है, उसके सामने जिसे धोखे से मस्जिद बताया जाता है और केन्द्रीय भवन-सहित जिस पर संगमरमर का गुम्बद है, परिसर के सभी भवन, मरम्मत तथा अरबी के अक्षर खुदवाकर विकृत करने के लिए मचानों से घेरे गए थे। केन्द्रीय अष्टभुजीय हिन्दुओं के पवित्र कक्ष को तोड़ा गया और उसके मध्य भाग की खाई में मुमताज़ को तिरछा दफनाया गया। ऊपरी मंजिलों पर मकबरे बनाए जा रहे थे जिससे कि वह भवन यदि फिर से हिन्दुओं के अधिकार में चला गया तो कोई भी मंजिल उनके लिए उपयोगी न रह सके। बहुत सारी मंजिलों पर दीवार बनाई जा रही थी, क्योंकि इस कार्य में काफी कुछ उखाड़ना-तोड़ना चल रहा था इसलिए दूसरी मंजिलों से उखाड़े गए संगमरमर को कब्रों और गुम्बदों में लगा दिया गया। हमने 'कब्रों' शब्द बहुवचनान्त रूप में जानबूझकर प्रयोग किया है, क्योंकि जब तक शाहजहाँ जीवित था तब तक केवल वहाँ के केन्द्रीय कक्ष में मुमताज़ को ही दफनाया गया था किन्तु उसके बाद मुगल दरबार के जो अन्य लोग भी मरते गए उन सबको ताज में ही दफनाने के लिए लाया जाता रहा। जिससे कि सारा ताज कब्रिस्तान में परिवर्तित हो जाए और भविष्य में इस प्रकार की कोई सम्भावना ही न रह जाए कि उसका उपयोग कोई हिन्दू कर सके। सामान्य पर्यटक की दृष्टि से तो यह तथ्य छिपा ही रहा और यहाँ तक कि इतिहास के विद्वान् भी इससे अनभिज्ञ हैं। यदि उनके पास समस्त ताज परिसर के सूक्ष्म अध्ययन का समय हो तो वे देखेंगे कि सातुन्निसा खानम (मुमताज़ की नौकरानी) की कब्र भी वहीं एक कक्ष में है, और सरहन्दी बेगम (शाहजहाँ के हरम की एक रानी) दूसरे कक्ष में दफन है। इसी प्रकार अन्य अनेक सैकड़ों जाने-अनजाने मृतकों की करें पूर्व से पश्चिम तक वहाँ बनी हुई हैं। यह आश्चर्य का विषय है कि वे सभी कक्ष, हिन्दू वास्तुकला के प्रतीक, जैसाकि स्वयं ताज भी है, अष्टभुजाकार हैं।
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