इतिहास और राजनीति >> ताजमहल मन्दिर भवन है ताजमहल मन्दिर भवन हैपुरुषोत्तम नागेश ओक
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पी एन ओक की शोघपूर्ण रचना जिसने इतिहास-जगत में तहलका मचा दिया...
बाबर ताजमहल में रहा था
इतिहास के अध्यापक कभी-कभी बड़े भोलेपन से यह पूछ बैठते हैं कि यदि ताजमहल शाहजहाँ से शताब्दियों पूर्व से विद्यमान था तो यह किस प्रकार हुआ कि इसके पूर्व-प्रसंग उपलब्ध नहीं हैं? इस प्रश्न के तीन उत्तर हैं। प्रथमतः उस समय राजप्रासाद होने के कारण स्मारक की भौति जन-सामान्य के लिए खुला नहीं था जैसा कि वह अब है, और वह सतर्कता से आरक्षित था। वह केवल प्रतिष्ठित व्यक्तियों के लिए आमन्त्रण का ही अधिगम्य था, या फिर विजेता के लिए। इसलिए उन दिनों के विज्ञापन एवं संचार-व्यवस्था के युग के समान कोई उसके विषय में प्रसंगों की प्राप्ति की अपेक्षा नहीं कर सकता।
दूसरा उत्तर यह है कि प्राचीन और मध्ययुगीन भारत में विस्मय-विमुग्ध कर देनेवाले आकर्षक भवन, प्रासाद और मन्दिर इतनी अधिक संख्या में थे कि मात्र वर्णन के आधार पर उन्हें एक-दूसरे से वरीयता नहीं दी जा सकती थी। वह सब जो हम तक पहुँचा अथवा किसी यात्री द्वारा उल्लेख किया गया वह यही है कि "वे अवर्णनीय रूप से सुन्दर हैं" या "आश्चर्यजनक, आर्कषक, भव्य हैं।" उदाहरणार्थ, ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारत में लगभग ५६८ देशी शासक थे। उनमें से बहुतों के पास बहुत से सुन्दर और सुसज्जित प्रासाद थे। क्या उनमें से किसी एक को दूसरे से वरीयता प्राप्त है ? क्या वे, जिन्होंने उनको देखा है, केवल यही नहीं कह पाए कि वे अद्वितीय थे? उसी प्रकार मध्ययुगीन इतिहास भारतीय भवनों एवं प्रासादों की प्रशंसा से भरे पड़े हैं, परन्तु समस्या यह है कि किस प्रकार इतना समय बीत जाने पर, उनमें विभिन्नता प्रस्थापित की जाए। यह भी स्मरण रखने की बात है कि प्रत्येक ऐतिहासिक उथल-पुथल के साथ-साथ उनकी अधिकृति और स्थानों के नाम तथा सड़कों के नाम बदलते रहे। अपने मध्ययुगीन नाम और स्थान के अनुसार जिस भवन को हम आज देखते हैं, उनको पहचानने में भी कठिनाई होती है। मुस्लिम इतिहासों में एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया गया है कि मुहम्मद गज़नी कहता है, 'मथुरा का भव्य कृष्ण मन्दिर तो २०० वर्षों में भी पूर्ण नहीं हो पाया होगा और विदिशा (वर्तमान भिलसा) का मन्दिर ३०० वर्ष में पूरा हो पाया होगा।' वे जो कहते हैं कि हमें शाहजहाँ से पूर्व ताजमहल के अस्तित्व का उल्लेख नहीं मिलता उनसे हम प्रतिप्रश्न करते हैं कि मुस्लिम आक्रामकों से पूर्व मथुरा और विदिशा के उन भव्य मन्दिरों का उल्लेख क्यों नहीं मिलता? इसका उत्तर सरल है: या तो पहले के विवरण उपलब्ध नहीं हैं या फिर किसी विवरण-विशेष को इसलिए सुरक्षित रखने की चिन्ता नहीं की गई, क्योंकि भारत में ऐसे मन्दिरों की भरमार थी। यहाँ तक कि केवल एक ही नगर में, शक्ति एवं समृद्धिशाली भारतीय शासक के पास कम-से- कम एक दर्जन प्रासाद होते थे जो सुन्दरता और लागत में एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धी होते थे। तब केवल विभिन्न विवरणों के आधार पर एक का दूसरे से भिन्नत्व किस प्रकार प्रतिष्ठित किया जा सकता था? कोई उल्लेख, यदि होता तो केवल इतना कि अमुक भवन अमुक राजा का है।
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