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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

"कहिये संरकार।”

“काका बात यह है मैंने इनके लिये फ्लैट का इन्तजाम कर दिया है...ये अभी जाना चाहती हैं...सो कुछ खिला पिला दो तो ठीक रहेगा।"

“ठीक है सरकार...मैं अभी लाया।” रामू रसोई की तरफ चल दिया।

लता अपने ख्यालों में खोई'वैठी रही। और विकास उसके रूप को निहारने लगा।

कुछ ही देर में रामू हाथ में ट्रे थामे आ खड़ा हुआ। उसने मेज पर खाने का सामान लगाना शुरू किया।

"और कुछ लाऊं सरकार।” रामू ने विकास से पूछा।

“अरे नहीं काका।” विकास ने कहा फिर लता से बोला-"चलो लता शुरू हो जाओ...नहीं तो देर हो जायेगी।"

दोनों ने खाना शुरू कर दिया।

लता व विकास जब फ्लैट पर पहुंचे तो नौ वजने वाले थे। विकास ने ताला खोला और अन्दर पहुंच गया। लता उसके पीछे थी। उसकी नजरें अभी भी झुकी हुई थीं। तभी विकास ने कहा

"पसन्द आया अपना फ्लैट।”

लता ने नजरें उठाकर चारों ओर देखा...और देखती ही रह गई।

फ्लैट बहुत सुन्दर था। फिर विकास ने उसमें हर सामान लगवा दिया था, जो एक आदमी की जरूरत का होता है-कमरे में .. एक डबलबेड एक कोने में बिछा था-एक तरफ सोफा पड़ा था। बीच में एक मेज रखी थी। मेज के ऊपर फूलदान रखा था। एक तरफ एक अलमारी थी। उसमें शीशा लगा था। शीशे के अन्दर से हैंगर में लटकी साड़ियां झांक रही थी। लता आश्चर्य से कमरे को निहार रही थी।

“लता पूरा मकान देख लो अगर पसन्द न हो तो दूसरा ढूंढ लिया जायेगा।" विकास ने लता को खड़े देखकर कहा।

लता रसोई में गई। वहाँ भी खाना बनाने के पूरे बर्तन ठीक प्रकार से सजे थे। कुछ डिबे आलमारी में लगे थे। जिनमें दाल-मसाले आदि भरे थे। इसके बाद लता बाहर कमरे में आ गई।

“कहो लता मकान पसन्द आयो।” लता को चुप देख विकास ने अपना प्रश्न दोहराया।

"विकास ये मकान क्या सामान सहित किराये पर लिया है।"

लता ने विकास से पूछा।

अरे नहीं...ये सब इन्तजाम मैने किया है...बोलो कहीं कुछ कमी हो तो पूरी कर दूँ।

“नहीं विकास कमी क्या होती है...मैं तो ये सोच रही हूं...मुझे तो एक साधारण से कमरे की जरूरत है...जिसमें मैं अपनी गुजर कर सकूं...इतने बड़े फ्लैट का मैं क्या करूंगी...फिर इसका किराया

मैं कैसे दे पाऊंगी। जबकि अभी तो नौकरी का भी कहीं पता नहीं है। क्या पता मुझे नौकरी मिलने में कितना समय लग जाये। इतना कर्ज मैं तुम्हारा किस प्रकार चुका पाऊंगी।" लता का गला भर आया।

लता बार-बार तुम मुझे कर्ज का अहसास क्यों दिलाती हो, मैं तो एक दोस्त के नाते तुम्हारी मदद कर रहा हूं...मैं जानता हूं...तुम्हारी दोस्ती मुझे महंगी नहीं पड़ेगी...तुम इस बात को क्या। जानो।” विकास का स्वर अपनत्व भरा था।

तभी विकास की नजर अपनी कलाई पर पड़ी-"अरे बाप रे...ग्यारह बज रहे हैं...आज तो मेरे दोस्त क्लब में बोर हो गये होंगे...अच्छा लता तुम भी आराम करो...मैं सुबह मिलूंगा कोई चिन्ता नहीं करना।' विकास ने बोलते-बोलते ही जेब में हाथ डाला। जब उसका हाथ बाहर आया तो उसमें कुछ नोट चमक रहे थे।

विकास ने नोट लता की कलाई पकड़कर उसके हाथ में रख दिये।

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