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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

मुकेश समझ गया यह लता की मामी होगी, उस आवाज में सखी थी।

“किससे मिलना है?" अजनबी को सामने देख मामी ने पूछा।

"जी वो लता जी हैं..." मुकेश का स्वर मुंह में ही रह गया।

“तुम लता के कौन हो...उससे तुम्हारा क्या काम है?” मामी का स्वर काफी सख्त था उसके चेहरे पर घृणा के भाई थे।

"एक किताब लेनी थी।” मुकेश ने धीरे से कहा।

“यहाँ लता नहीं है...अब कभी उस कलमुंही को पूछने इधर नहीं आना...हमने उसे पाला उसका नतीजा हमें ये मिला...हरामजादी अपने यार के साथ भाग गई..मैं उसका नाम भी सुनना पसन्द नहीं करती...कमीनी।" और मामी ने भड़क से दरवाजा बन्द कर लिया।

मुकेश के पैरों तले जमीन निकल गई। पांच मिनट मुकेश बुत की तरह खड़ा रहा फिर तेज कदमों से लौट गया। उसकी दुनिया अंधेरी हो चुकी थी।

सदा ही मुकेश और लता साध रहे थे। मुकेश के अलावा और कौन था जिसके साथ सती जा सकती थी। उस दिन रात में

उसी के पास आई थी तब...तब क्या लता ने आत्महत्या कर ली।

“नहीं...।" मुकेश के मुंह से अचानक चीख निकली पर तुरन्त ही सम्पल गया। अब उसे होश आया वह सड़क पर चल रहा है। यह तो भगवान का शुक्र था कि आसपास कोई नहीं था।

मुकेश अपने कमरे पर गया। ताला खोला और बिस्तर पर औंधे मुंह गिर पड़ी। उसे दरवाजा बन्द करने का होश. पी नहीं रहा। मुकेश इस समय अपने को कोस रहा था। उस दिन वह लता को रोक लेता तो कम से कम वह इतना बड़ा कदम तो ने उठाती। अवश्य ही उसने मौत को गले लगा लिया होगा। लता की आह

को ही असर था जो मुकेश डेढ़ महीने बिस्तर पर पड़ा रहा। वह इन्हीं ख्यालों में खोया था कि दरवाजे पर आहट हुई।

"कौन?" मुकेश बिस्तर पर उठ बैठा। उसने देखा दरवाजे पर मकान मालकिन खड़ी थी।

"आइये मांजी।" मुकेश ने कहा।

“अरे बेटा तू अचानक कहाँ चला गया था...मैं तो परेशान थी...आज तक तो तू कभी ऐसे नहीं गया।” बुढ़िया ने पूछा।

"मांजी अचानक ही एक कार से एक्सीडेंट हो गया था...डेढ़

महीने अस्पताल में पड़ रहा...आज ही छुट्टी मिली है...।" मुकेश ने बताया।

"अरे बेटा तूने तो खबर भी नहीं करवाई...मैं तो परेशान थी...क्या बात है... बेटा तेरी कुछ चिट्ठियां आई हैं...मैं अभी लाती हूं और चाय भी भिजवाती हूं।” एक्सीडेंट की बात सुन बुढ़िया के चेहरे पर सहानुभूति के भाव आ गये।

"अरे मांजी चाय की कोई जरूरत नहीं है।" मुकेश ने कहा।

"जरूरत क्यों नहीं है...तू आराम कर...कितना कमजोर हो गया है।” कहती हुई बुढ़िया बाहर निकल गई।

कुछ देर बाद ही एक लड़का चाय लेकर आ गया। चाय के साथ कुछ नाश्ता भी था। लड़के ने स्टूल पर रख दिया और बोला-"अंकल...दादी कह रही है, आपके चोट लग गई थी।"

"हाँ बेटा...पर अब ठीक है।" मुकेश ने उसे अपने पास बिठाते हुये कहा।

"अंकल अब आप बाहर नहीं जाना...कभी फिर चोट लग जाये।” लड़के ने भोले स्वर में कहा।

“पर अगर मैं बाहर नहीं जाऊंगा तो मेरा काम कौन करेगा?"

मुकेश के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। अकराहट थी।

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