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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

विकास ने मन ही मन सोचा-"देखना लता आज तुम जिसे . घृणा की दृष्टि से देख रही हो...मैंने तुम्हें एक दिन इस रंग में न रंग दिया तो मेरा नाम भी विकास नहीं।"

इधर लता अपने सुन्दर घर के सपने संजो रही थी, एक छोटा सा घर जिसमें लता हो, विकास हो और उनके बच्चे। उनके बीच और कोई न हो ये महफिल और न शराब।

दोनों ही अपना सामान खत्म कर चुके थे। लता बार-बार विकास की ओर देख रही थी पर विकास अपने को वहाँ के

वातावरण में डुबोये था।

लता जब बहुत बोर हो गई तो बोल ही उठी-"प्लीज विकास

उठो न...मैं तो यहाँ बोर हो गई।”

"अरे...तुम बोर हो रही हो।” विकास ने आश्चर्य से कहा।

“और क्या...ये भी कोई अच्छी जगह है...इससे तो अच्छा कहीं पार्क में बैठ जायें।”

"इतनी बोर जगह तो नहीं है ये।”

“हो सकता है...तुम्हें पसन्द हो...पर मैं तो पसन्द नहीं करती।”

"देखो लता...सोसाइटी के लिये हमें अपने को बदलना पड़ता है...तुम अभी तक बहुत छोटे घर में रही हो...जहाँ अपनी जरूरत आदमी पूरी न कर सके, वहाँ वह ऐसी ऊंची सोसाइटी में कहाँ आ सकता है..अब तुम एक करोड़पति के बेटे की सैक्रेटरी की हैसियत रखती हो...जो हर शाम ऐसे ही वातावरण में समय गुजारते

हैं...अपनी पोजीशन के हिसाब से चेंज तो करना ही पड़ेगा।" विकास ने खुले शब्दों में लता से सब कुछ कह डाला।

लता विकास को मुंह देखती रह गई। विकास ने उसकी गरीबी का एहसास दिला दिया था...पर अब वह कर भी क्या सकती थी।अगर जिंदा रहना चाहती है तो उसे विकास की इच्छाओं के सामने सर झुकाना ही पड़ेगा...लता की आंखों में आंसू आ गये पर उसने उन्हें बड़ी सफाई से छिपा लिया।

विकास भी कनखियों से लता के चेहरे पर, आते-जाते भाव देख रहा था। अचानक ही विकास उठ खड़ा हुआ।

“चलो।"

विकास के उठते ही लता भी उसके साथ उठ गई। थोड़ी देर बाद दोनों वापस जा रहे थे।

"सुबह आठ बजे के करीब मुकेश वहाँ पहुंच गया। अभी आफिस जाने में दो घंटे का समय था। अब उसे क्या करना चाहिये ' यही सोचता हुआ हाथ में अटैची लिये मुकेश स्टेशन से बाहर निकला। सुबह का समय होते हुये भी गर्मी से बुरा हाल था। बाहर आते ही उसने एक रिक्शे वाले को रोका और उसमें अटैची रखकर बैट गया।

"कहाँ जाना है बाबूजी।" रिक्शे वाले ने पूछा।

“भैया किसी अच्छे से होटल में ले चलो।" मुकेश ने बताया।

रिक्शा अपने रास्ते दौड़ पड़ा। मुकेश वहाँ की दुकाने आदि देखता हुआ चलने लगी। कुछ ही देर बाद एक होटल के सामने रिक्शा रूक गया।

मुकेश ने रिक्शे वाले को पैसे दिये और अटैची उठाकर चल दिया। होटल में जाकर उसने एक कमरा अपने नाम से बुक कराया।

कुछ ही देर बाद कमरे की चाबी उसे मिल गई। चपरासी ने मुकेश से अटैची ली और उसे कमरा दिखाने चल पड़ा। कमरा फर्स्ट फ्लोर पर था।

मुकेश ने कमरे में सामान रखवा कर चाय नाश्ते का आर्डर दिया। चपरासी आर्डर लेकर चला गया। मुकेश को गर्मी के मारे बुरी हाल था। उसने कपड़े निकाले और बाथरूम में घुस गया।

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