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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

जब नहाकर निकला तो उसे अपना बदन काफी हल्का लग रहा था। तभी चपरासी चाय ले आया। चाय नाश्ता केरके मुकेश आफिस के लिये निकल पड़ा। आफिस का पता ठिकाना मुकेश ने होटल के काउन्टर मैन से पता कर लिया। वह पैदल ही चल पड़ा इसमें उसका उद्देश्य था वहाँ के रास्ते आदि जान लेना।

बाजार अभी-अभी खुला था। सड़क पर काफी भीड़ थी

कुछ तो स्कूल कॉलेज वाले थे, कुछ आफिस में काम करने वाले।

धीरे-धीरे सुनसान इलाका शुरू होने लगा। अब इक्का-दुक्का आदमी ही चल रहे थे। उसने देखा कुछ दूर पर एक लड़की हाथ में किताबें उठायें बढ़ी चली जा रही थी। उसके पहनावे से लगता था जैसे वह किसी अच्छे-बड़े घर की लड़की हो पर पैदल उसका दिमाग उलझ कर रह गया।

मुकेश आजकल के माहौल से वाकिफ था जरा भी अच्छा घर हो लड़की-लड़के स्कूटर व रिक्शे के बिना घर से बाहर कदम नहीं निकालते हैं। पैसा पानी की तरह बहाकर वे औरों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

तभी मुकेश ने देखा कहीं से दो लड़के उस लड़की के पीछे लग चुके थे। अपने ख्यालों में खोयी मुकेश यह नहीं जान.सका कि वह दोनों कहाँ से उसके पीछे लगे। मुकेश ने भी अपने कदम तेज कर लिये थे। तभी उसने सुना।

"हैलो...क्या हाल-चाल हैं?" एक ने कहा।

"यार...आज सवारी पैदल कैसे?" दूसरे ने कहा।

“यार पैदल तो ये नाजुक पैर दुख जायेंगे।"

"चलो हम पहुंचा दें कालिज।”

“अरे मेरी जान...ऐसी भी क्या नाराजगी...कुछ तो बोलो।" वह दोनों अब उसके विल्कुल करीब पहुंच गये थे। दोनों ने उसे अपने बीच में कर लिया।

"क्या मौन व्रत धारण किया है। एक ने कहा।

तभी एक झन्नाटेदार चांटा उसके गाल पर पड़ा। लड़की का चेहरा क्रोध से लाल हो उठा था पर वह यह भूल गई थी कि वो दो हैं और वह अकेली।

जिसके गाल पर चांटा पड़ा वह एक बार तो चौक उठा पर

तुरन्त ही उसके चेहरे पर कटुता उभर आई।

“तो तू ऐसे नहीं मानेगी।” उसमे कहा और कसकर हाथ पकड़ लिया।

“अब सीधी सी हमारे साथ चल दो...नहीं तो अच्छा नहीं होगा।" दूसरे ने कहा। मुकेश पहले उस लड़की को ठीक नहीं समझ पाया था पर

जैसे ही उसने देखा कि वह ख़तरे में है वह लपक कर उन दोनों गुण्डों के सामने जो खड़ा हुआ।

"क्या बात है?" जिसके चांटा पड़ा था उसने गुर्राते हुये स्वर में मुकेश से कहा।

"इस लड़की को छोड़ दो।” मुकेश का स्वर शांत था।

"तुम कौन होते हो इसके?"

"मैं जो भी हूं...तुम इसको छोड़ दो।" अब की बार मुकेश का स्वर सख्त था।

“लगता है इसका आशिक है।"

तभी एक अचरज हुआं-मुकेश का एक हाथ एक की गाल पर पड़ा और पैर की ठोकर दूसरे के पेट में, उन दोनों को सपने में भी ख्याल नहीं था कि उनके सामने वाला इतना तेज़ होगा।

लड़की उनसे छूट गई थी। वह किनारे पर खड़ी कांपती हुई इस लड़ाई को देख रही थी जिसका कारण वह खुद थी। उसकी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस व्यक्ति की कैसे मदद करे जो इस समय उसके लिये खुदाई मददगार बनकर आ गया था।

मुकेश उन दोनों के साथ गुंथा था। वह अकेला था उसके प्रतिद्वंदी दो थे पर फिर भी उसने दोनों को दिन में तारे दिखा दिये।

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