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राजहंस का नवीन उपन्यास
लता ने घबराकर आंखें खोली तो उसके सामने उसके सपनों का देवता था। आज लता ने कोई एतराज नहीं किया बल्कि शरमा कर अपना चेहरा विकास के सीने में छुपा लिया...इस समय उसे दुनिया में किसी का डर नहीं था। वह अपने पति की बांहों में थी।
मुकेश इस समय आफिस के अपने कमरे में था। अभी कुछ समय पहले ही देहली से एक 'टॅककाल आई थी। सेठ ने अपना नाम दयानाथ बताया था। मकेश देहली के एक सेठ दयानाथ को जानता था जो विकास के पिता थे पर विकास के पिता से सेठ जी - का क्या काम हो सकता है। मुकेश यही नहीं समझ पा रहा था।
सेठ जी ने मुकेश को कुछ भी नहीं बताया था...जवकि उसे, घर के या दफ्तर के हर काम का पता रहता था। सेठ जी हर बात को पहले मुकेश से बताते थे। उन्होंने मुकेश को अपने बेटे की तरह माना था। सुनीता भी अब मुकेश को भैया ही कहकर पुकारती थी...तभी मुकेश के दिमाग में एक धमाका सा हुआ कहीं सेठ जी विकास के चक्कर में तो नहीं हैं...हाँ यही हो सकता है पर विकास वह तो सुनीता के पैरों की धूल भी नहीं बन सकता है।
मुकेश ने चपरासी को कुछ समझाया फिर आफिस से निकल पड़ा। मुकेश धीमी गति से गाड़ी चला रहा था। ये गाड़ी एक महीने पहले ही सेठ जी ने मुकेश को दी थी। साथ ही मुकेश को गाड़ी चलाना भी सिखवा दिया था और एक महीने के अन्दर ही मुकेश गाड़ी चलाने में एक्सपर्ट हो गया था...हाँ वह गाड़ी कभी तेज नहीं चलाता था। इस समय भी मुकेश धीरे-धीरे गाड़ी चला रहा था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ये वहीं सेठ दयानाथ हैं या और कोई। उसे अभी सेठ जी से कोई बात करनी चाहिये या नहीं...अगर यह कोई और सेट हुआ तो दिल्ली तो इतनी बड़ी है...वहाँ अनेक. लोग एक ही नाम के होंगे...बिना देखे वह कैसे कह सकता है कि ये वही सेठ है..फिर अभी तो मुकेश यह भी : नहीं जानता था कि सेठ जी का क्या काम है यदि धंधे वाली बात। है तो क्या फर्क पड़ता है अगर उसी विकास के पिता हों तो और यही सब सोचकर मुकेश ने मन ही मन में निश्चय किया कि अभी व सेठ जी से कोई बात नहीं करेगा समय आने पर ही देखी जायेगा।
मुकेश ने कम्पाउण्ड में ही गाड़ी खड़ी की और अन्दर चल दिया। रास्ते में ही मुकेश दीनू काका से टकरा गया। काका घर की सफाई में लगा था। मुकेश की समझ में नहीं आया ये सफाई का कौन सा समय है परन्तु मुंह से उसने कुछ नहीं कहा हो काका को देखते ही मुकेश बोला-"काका अंकल हैं।"
"हाँ मुकेश बाबू। आप तो बड़े सरकार सुबह से ही घर में हैं।" काका ने बताया।. .
मुकेश कुछ कहे बिना ही सेठजी के कमरे की तरफ बढ़ गया।
सेठ जी अपने कमरे में एक आराम कुर्सी पर पसरे हुये थे। मुकेश दरवाजे में पहुंचा तो मुकेश ने कहा-"अंकल मैं आ सकता हूँ।"
"हाँ...हाँ आओ मुकेश मैं अभी तुम्हें फोन करने ही जा रहा।
था परन्तु तुम इस समय कैसे आ गये?" सेठजी ने प्रसन्नता पूर्वक कहा।
"यो...अंकल देहली से किसी सेठ दयानाथ का फोन आया है।” मुकेश सेठजी के नजदीक ही पड़ी कुर्सी पर बैठते हुये बोला।
"क्या उनका फोन देहली से आया है...परन्तु अब तक तो उन्हें यहाँ आ जाना चाहिये था।” सेठ जी फोन का मतलब नहीं '. समझे। अब उनके चेहरे पर घबराहट के चिन्ह छा गये।
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