सामाजिक >> अजनबी अजनबीराजहंस
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राजहंस का नवीन उपन्यास
विकास लता को रोज ही आफिस भेज देता था इससे उसे .आफिस की हर गतिविधि का पता चलता रहता था। आज विकास को घर पहुंचना था अपनी सहूलियत के लिये विकास ने लता के फ्लैट में एक फोन का इन्तजाम करवा दिया। इस समय लता आफिस गई हुई थी, विकास अकेला पड़ा बोर हो रहा था और दिन तो वह पीना शुरू कर देता था परन्तु आज क्योंकि घर पहुंचना था इसलिये पीना भी उचित नहीं था।
इन तीन दिनों में विकास लता के जिस्म से जी भरकर खेल चुका था और विकास का यह स्वभाव था कि एक ही वस्तु को "काफी दिन बरदाश्त नहीं कर पाता था वह चाहे ओ. भी चीज हो ये उसका बचपन का स्वभाव था।
सेठ दयानाथ बचपन में विकास से परेशान थे। सेठ जी रोज़
विकास के लिये नये-नये खिलौने लाया करते थे परन्तु विकास एक खिलौने से दो-एक दिन लगातार खेलता और फिर उसे तोड़कर फेंक देता।
कभी सेठ जी कहते-“विकास बेटा किसी को दे देंगे...इसे तोड़ो मत।”
लेकिन विकास को तोड़े बिना चैन नहीं मिलता उसकी इस आदत से सेठ जी सदा ही परेशान रहे पर उन्होंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया कि इस आदत का बड़े होने पर क्या असर पड़ेगा।
आज विकास का यही वचपन का शौक एक खतरनाक मोड़ ले चुका था। विकास ने जब से जवानी में कदम रखा था तब से आज तक अनेक कलियों को मसलकर फेंक चुका था और इस काम से उसे जरा भी दुख नहीं होता था।
जब विकास का मन नहीं लगा तो वह सोचने लगा वह क्या करे तभी उसे रूबी का ख्याल आया। इस समय बी आ सकती थी। रूबी दिल बहलाने के लिये एक अच्छा पार्टनर सिद्ध हो सकती थी। विकास ने फोन उठाया और रूबी का नम्बर डायल करने लगा। कई जगह फोन मिलाया परं रूबी को कहीं पता नहीं चला। हार कर विकास ने फोन पटक दिया।
अभी विकास लेटा ही था कि दरवाजे पर दस्तक हुई विकास की समझ में नहीं आया। इस समय यहाँ पर कौन आ सकता है। विकास दबे पांव बिस्तर से उठा। धीरे-धीरे दरवाजे के नजदीक पहुंचा विकास में की होल में अपनी आंख लगा दीं-बाहर जग्गा खड़ा था। विकास की समझ में नहीं आया-"वह इस समय यह क्यों आया है?" पर दरवाजा खोलने के अलावा कोई चारा नहीं था क्योंकि विकास जानता था कि जग्गा चोर आखें रखती है। उसकी आंखे सदा खुली रहती हैं...यहाँ आने का मतलब समझे जग्गा अच्छी तरह जानता था है कि विकास यहाँ होगा।
विकास ने धीरे से चटकनी खोल दी फिर दरवाजा खोलकर कहा-
“हेलो जग्गी...इस समय यहाँ कैसे?"
"विकास बाबू...कुछ जरूरत थी मैंने सोचा आपके पास ही चला जाये।"
“तुम्हें कैसे पता चला मैं यहाँ मिलूँगा?"
"विकास बाबू...जग्गा हर समय सतर्क रहता है...कहिये तो उस दिन से आज तक के एक-एक क्षण के विषय में बता सकता हैं...आपने कब...कहाँ...क्या किया है...वो भी प्रमाण सहित।” कमरे में सोफे पर पैसरते हुये जग्गा ने कहा।
"तुम तो नाराज हो गये...मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया था।" जग्गा का स्वर सुनकर विकास कांप उठी थी लेकिन जल्दी ही वह अपने को संयत कर चुका था।
"जैसे तुमने पूछा वैसे ही मैंने बता दिया।” जग्गा का स्वर व्यंगात्मक था।
“हाँ बताओ क्या जरूरत है?” विकास जग्गा को जल्दी ही वहाँ से हटाना चाहता था।
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