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अजनबी

राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

“मुझे पांच हजार रुपये चाहियें।" जग्गा का स्वर सपाट था।

“क्या पांच हजार।” विकास का मुंह खुला रह गया।

“हाँ विकास बबू।"

"लेकिन जग्गा मैंने जो तुमसे काम कराया था...उसका रुपया मैं पहले ही दे चुका हूं...जबकि तुम अपने कार्य में सफल भी नहीं हुये।" अब तक विकास अपने को बिल्कुल संयत कर चुका था। उसका स्वर कठोर था।

"विकास बाबू एक बात सुन लीजिये...मैं तेज आवाज सुनने का आदी नहीं हूं...फिर आपका काम पूरा हुआ या नहीं इससे कोई

मतलब नहीं...आपका उद्देश्य तो पूरा हो गया।" जग्गा ने एक-एक शब्द दांत पीसते हुये कहा।

"पर मैं तुम्हें रुपया नहीं दे सकता।” विकास ने दृढ़ स्वर में कहा।

"ठीक है..तो मैं अभी उस लड़की से सब बता देता हूं...फिर मुझे दोष मत दीजियेगा।" जग्गा का स्वर क्रोध से भरा था।

"जग्गा तुम्हीं सोचो इस समय मैं तुम्हें इतना पैसा कैसे दे सकता हूं।” विकास घबरी उठा।

"इस समय कितना दे सकते हो?” जगगा ने नम्र स्वर में कहा।

विकास ने अपनी जेब टोली उसकी जेब में एक हजार के करीब नोट थे। विकास ने नोट निकाले और जग्गा की तरफ बढ़ाते हुये बोला-“इस समय मेरी जेब में इतना ही है।"

“ठीक है आज इतने ही सही कल ठीक चार बजे मेरा आदमी आपके पास पहुंच जायेगा...बाकी उसे दे देना...लेकिन याद रखना धोखा हुआ तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा...जग्गा यारों को यार है। तो दुश्मन का जानी दुश्मन।" जग्गा ने सारे रुपये बिना गिने ही जेब में डाले और चल दिया।

विकास दरवाजे पर खड़ा जाते हुये जग्गा को देखता रहा जो कल तक उसकी गहरा मित्र था उसके लिये जान तक हाजिर करता थी आज वही उसे लैक मेल करने पर तुल गया था। विकास ने दरवाया बन्द किया और सोफे पर बैठ गया उसके चेहरे पर परेशानी के भाव छा गये थे। आज उसने जग्गा को असली रूप देखा था। उसका दोस्त ही उसके रास्ते में दीवार बन गया था जिसे हटाने का कोई उपाय उसे नहीं सूझ रहा था। आज के बाद हमेशा ही उसे जग्गा की फरमाइश पूरी करनी थी।

सुनीता ने थाली मेज पर रख दी फिर उसमें से राखी निकालकर मुकेश से बोली-“मुकेश मेरे भैया तुम्हें अपनी छोटी बहन की ये पेंट मंजूर है ना।”

मुकेश एकटक सुनीता को देख रहा था। उस सुनीता को जो रोज किसी न किसी बात पर उससे जरूर नाराज होती थी। मुकेश ने धीरे से अपना दांया हाथ आगे बढ़ा दिया-

“सुनीता ऐसी सुन्दर भेंट को कौन ठुकरा सकता है...ऐसा भाग्यवान तो कोई होता है..मैं बचपन से इस पेंट के लिये तड़पता रहा है...हमेशा ही भगवान से शिकायत की है कि उसने मुझे एक प्यारी गुड़िया सी बहन नहीं दी...आज भगवान ने मेरी बरसों की इच्छा पूरी कर दी...सच कहता हूं सुनीता ये प्यार बड़ी मुश्किल सेमिलता है।"

सुनीता ने धीरे से राखी मुकेश के हाथ में बांध दी। उसी के साथ दो बूंद आंसू मुकेश के हाथ पर गिर पड़े। फिर सुनीता ने थाली से मिठाई का एक टुकड़ा उठाया और मुकेश की तरफ बढ़ा दिया। मुकेश ने मुंह खोल दिया। सुनीता ने हाथ बढ़ाकर मिठाई मुकेश के मुंह में रख दी।

मुकेश ने सुनीता को अपने पास बैठा लिया फिर थाली में से एक रसगुल्ला उठाया और सुनीता के मुंह में भर दिया और बोला-“सुनीता इस समय तो तेरा भाई खाली हाथ बैठा है..क्या करू तूने चुना ही ऐसा भाई पर इन राखी के धागों की सौगन्ध खाकर कहता है..मेरे जीते जी मेरी गुड़िया सी बहन पर कोई मुसीबत नहीं आ सकती...ये तेरा भाई हर मोड़ पर तेरे साथ होगा...आज से अंकल की तुम अकेली बेटी नहीं हो तुम्हारा एक भाई भी है।"

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