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राजहंस

प्रकाशक : धीरज पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 15358
आईएसबीएन :0

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राजहंस का नवीन उपन्यास

सेठ दयानाथ के हाथों के तोते उड़ गये। वह तो सोच रहे थे कि इतनी बड़ी फर्म के मालिक के घर से काफी धन मिलेगा परन्तु अब उनके हाथ से बात निकल चुकी थी। उन्होंने पहले हैं। कह दिया था कि लड़की उन्हें पसन्द है इसलिये वे शादी से इंकार भी नहीं कर सकते थे परन्तु फिर उन्होंने सोचा इसमें क्या फर्क पड़ता है पहले या बाद में धन तो मेरे बेटे को ही मिलेगा। यही सब सोचकर सेठ दयानाथ ने कहा-“अरे सेठजी, मैं तो खुद ही दहेज के खिलाफ हूं...मुझे उन लोगों से बड़ी नफरत हैं जो लड़की में सब गुण होते हुये भी सिर्फ दहेज के कारण रिश्ता छोड़ देते हैं। फिर भगवान की दया से अपने घर में किस बात की कमी है, भगवान का दिया सब कुछ है...बस एक बहू की कमी है इसीलिये मैं तुरन्त शादी चाहता हूँ परन्तु अब आप नहीं चाहते तो ठीक है, आप जो भी तारीख कहें हमें मंजूर है... बस जल्दी की ही तारीख निकलवाईयेगा।"

"अजी निकलवानी किससे है, मैं पंडित आदि नहीं मानता। आज तीस तारीख है..पांच तारीख की शादी तय...इतने समय में मैं अपने रिश्तेदारों को बुलवा लूंगा।” सुनीता के पापा ने कहा।

फिर सेठ शान्ती प्रसाद ने दीनू से एक थाली में चावल रोली मंगाये।

विकास के माथे पर टीका लगाकर उसके हाथ में कुछ नोट

रख दिये फिर बोले-“सेठ जी, आज से आपका बेटा हमारा हो गया।”

"भई सुनीता को भी तो बुलाईये।” सेठ दयानाथ ने कहा।

सेठ जी ने दीनू से सुनीता को बुलाने के लिये कहा।

थोड़ी देर बाद ही पीना के साथ सुनीता ने कमरे में प्रवेश किया। विकास ने अपनी जेब से एक हीरे की अंगूठी निकाली और धीरे से सुनीता के हाथ में पहना दी। सुनीता के हाथ से हाथ छूते ही विकास को लगा जैसे उसके सारे शरीर में सिरहन दौड़ गई । विकास एकटक सुनीता को देख रहा था।

मीना विकास को देख रही थी। उसको चंचल मन शरारत करने पर उतर आया। उसने सुनीता के कान में धीरे से कहा-“सुनीता, वो सामने देख।”

सुनीता की नजरें उठीं और साथ ही विकास की नजरों से, मिल गई। सुनीता ने घबराकरे नजरें नीची कर ली।

तब तक मीना विकास के पास पहुंच चुकी थी वह धीरे से बोली-“क्यों जीजाजी क्या हाल है?”

"मैं आपका मतलब नहीं समझा।” विकास ने भी धीरे से कहा।

मेरा पतलब है...क्या इससे पहले लड़की नहीं देखी।"

"देखी तो बहुत हैं परन्तु आपकी सहेली से कम सुन्दर....गजब का रूप पाया है आपकी सहेली ने।” विकास ने शरारत भरे स्वर में कहा।

“कुछ दिन बाद आपके पास ही होगा ये रूप...परन्तु जरा सम्भाल कर रखियेगा।” मीना ने कहा तभी सेठजी का स्वर सुनाई। पड़ा-“मीना, यहाँ भी कुछ शरारत करने का इरादा है क्या?"

"अरे नहीं अंकल।”

"विकास, ये सुनीता की बचपन की सहेली है और बहुत ही शरारती है।" सेठ जी ने विकास से कहा।

“अच्छा सेठ जी चला जाये।” दयानाथ ने कहा फिर जैसे ही विकास उठने लगा। उसने देखा उसकी कमीज पीछे से सोफे के साथ पिनअप कर रखी थी एक नहीं बल्कि कई पिनों द्वारा।

दूर खड़ी मीना खिलखिला के हंस रही थी। विकास ने हंस पा रहा था और न गुस्सा ही कर पाने की स्थिति में था।

उधर सेठजी हंसते हुये कह रहे थे-"मैं तो पहले ही कह रहा -.' था ये शरारती लड़की मानेगी नहीं।”

मुकेश ने बढ़कर विकास की कमीज से पिन निकाले फिर सब. कमरे से बाहर आ गये । गाड़ी में बैठते हुये विकास ने मीना से कहा-"आपकी शरारत उधार रही कभी उतार दूंगा।"

"जीजा जी...मैं इंतजार करूंगी।” मीना ने कहा फिर विकास व सेठजी की कार चल दी।

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