कविता संग्रह >> महामानव - रामभक्त मणिकुण्डल महामानव - रामभक्त मणिकुण्डलउमा शंकर गुप्ता
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युगपुरुष श्रीरामभक्त महाराजा मणिकुण्डल जी के जीवन पर खण्ड-काव्य
छल से गौतम ने श्री मणिकुण्डल का सब धन तो छीन ही लिया था, किन्तु धर्मशील ने अपना सत्यनिष्ठा का आचरण नहीं छोड़ा। उसने मणिभद्रपुरम तीर्थ, श्री बद्रीनाथ धाम और अन्य तीर्थस्थानों के तथा श्री विभीषण जी से प्रभुराम की कृपा का वर्णन सुना और भाव विभोर होकर नई आशा और विश्वास को लेकर आगे की यात्रा में प्रवृत्त हुए, गोदावरी तट पर बसा चक्षुतीर्थ और आगे महापुर नगर जो सौराष्ट्र और महाराष्ट्र की सीमा पर स्थित था, यहां पहुंचकर इस सत्यनिष्ठ, सच्चरित्र कर्तव्य और कर्म के उपासक को असीम आत्मशान्ति का अनुभव हुआ।
शायद महापुर श्री मणिकुण्डल जी की प्रतीक्षा में ही था या सौभाग्य इस महापुरुष की प्रतीक्षा कर रहा था। पता चला कि इस नगर के अधिपति श्री महाबली की पुत्री बीमार थी। अनेक वैद्य और तांत्रिक भी उसे स्वस्थ नहीं कर पाये थे। वह जन्मान्ध भी थी नेत्र ज्योति और प्राणशक्ति समाप्त हो चली थी। महाराजा महाबली निराश हो चुके थे। श्री मणिकुण्डल जी को ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर पूर्ण विश्वास था। उन्होंने राजा के समक्ष अपने को आत्मश्विास के साथ राजसुता की चिकित्सा के लिए प्रस्तुत किया। चमत्कार हो गया। इन्हें विशल्यकरिणी और संजीवनी का अनुभव तो था ही। जो इन्हें श्री विभीषण जी से प्राप्त हुई थी। राजकुमारी स्वस्थ हो गयी। महाराजा महाबली ने श्री मणिकुण्डल जी को राज दे दिया और अपनी पुत्री के साथ विवाह कर दिया। कुछ दिन परम आनन्द के साथ दिन बिताये फिर अपनी जन्मभूमि की याद आई।
राजपुत्री से विवाह के उपरान्त ससुर-दामाद का परस्पर संवाद भी इस काव्य कृति का महत्वपूर्ण अंश है। श्री मणिकुण्डल को अनेक लौकिक और अलौकिक ज्ञान-विज्ञान की बौद्धिक शिक्षाओं से अवगत कराते हुए महाबली ने जीवन दर्शन के रोचक-मोहक और नीति परक प्रबोधन किये। उत्तर में श्री मणिकुंडल ने भी धर्मशास्त्र तथा लोक कल्याणकारी वार्तालाप से अपने ससुर को संतुष्ट किया। दर्शन शास्त्र का विषय बहुत विस्तार से इस काव्य में कहा गया है। यद्यपि यह विषय बहुत गूढ़ और नीरस कहा जाता है किन्तु इस उत्तर-प्रत्युत्तर में बहुत व्यावहारिक भाषा में वर्णन का आधार बना है। श्री उमाशंकर गुप्त का अध्ययन-सृष्टि-रहस्य से समन्वित होकर मानव मस्तिष्क की प्रखरता तक इस प्रकार विकसित हुआ है कि उसमें जीवन जगत के सूक्ष्मतम उद्भवन और विकास के तत्व समाहित हो गये हैं। इस ज्ञान में पृथ्वी, अंतरिक्ष और आकाश तक के सभी चर-अचर जीव-जन्तुओं की तथा पंच भूतात्मक प्रति का वर्णन समाहित हो गया है। ग्रह, नक्षत्रों की गति और सौर मंडल की अनेक रहस्य पूर्ण जानकारियों से यह रचना बहुत पठनीय बन गयी है। अनन्त व्योम में कृष्ण छिद्र तथा ग्रह नक्षत्रों की परिक्रमा आदि का भी वर्णन राज दण्ड और राज मुकुट धारण कर श्री मणि कुण्डल ने अपनी राज व्यवस्था का प्रबंधन करके अपनी जन्मभूमि श्री अयोध्या जी के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में जितने धर्म स्थान-देव स्थान और भौगोलिक तथा ऐतिहासिक स्थान मिले उनमें पूजा अर्चना करते हुए श्री अयोध्या जी पहुंचे।
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