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विचित्र

सीतेश आलोक

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1618
आईएसबीएन :81-7315-367-1

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी...

Vichitra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मात्र विवरण की लघुता से कोई रचना लघुकथा नहीं बनती। लघुकथा-नाम है गागर में सागर भर देने के उस कौशल का जो मानवीय समीकरणों और संवेदनाएं को न्यूनतम शब्दों में समेटकर पाठक के हृदय तक पहुँचाने की सामर्थ्य रखता है लघुकथा नाम है ढाई पग में संपूर्ण संसार नापने तथा ढाई घर जैसी चाल द्वारा चमत्कार उत्पन्न करने की अभूतपूर्व क्षमता का।
आज जबकि लघुकथा के नाम पर अधिकतर चुटकुले लिखे जा रहे हैं या बोधकथाओं तथा किस्सागोई की शैली में अपना दलगत मत प्रस्थापित करने वाली घटनाएँ एवं काल्पनिक चर्चाएँ छापी जा रही हैं, डॉ. सीतेश आलोक की लघुकथाएँ उस भेड़चाल से हटकर लघुकथा विधा को साहित्यिक गरिमा प्रदान करते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान बनाती रही हैं।
पिछले तीन दशकों में कवि, कथाकार एवं सामाजिक चिंतक के रूप में अपना विशिष्ठ स्थान बनाने वाले डॉ. सीतेश आलोक की रचनाओं में मानव मन एवं संबंधों के ऐसे आयाम दिखाई देते हैं जो पाठकों को मात्र कुछ पढ़ने का ही सुख नहीं देते, बहुत कुछ सोचने-समझने पर विवश कर करते हैं।

इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ ‘कादंबनी’, ‘सारिका’, ‘रविवार्त्ता’, ‘रविवासरीय हिंदुस्तान’, ‘साहित्य अमृत’ आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में  प्रकाशित होकर पहले ही पाठकों द्वारा सराही जा चुकी हैं।

बोन्साई गाथा

अपने आपमें यह भी एक विचित्र बात है कि आज भी बड़े-बड़े उपन्यास लिखे जा रहे हैं, लघुकथा का अस्तित्व भी स्वीकार किया जा रहा है।।
विराटता का अपना आकर्षण होता है। यह मानव प्रकृति है कि किसी भी भाग्यशाली एवं विराट् वस्तु के प्रति उसका ध्यान सहज ही आकृष्ट होता है। किंतु वास्तविकता यह भी है कि सौंदर्य यदा-कदा लघु आकार में भी हमें लुभाता रहता है कभी चाँद, कभी फूल तो कभी तितली अथवा जुगनू के रूप में प्रकृति के न जाने कितने और कैसे-कैसे चमत्कार अपने लघु आकार के कारण हमें और भी प्रभावित करते रहते हैं। बरगद का वृक्ष देखने के हम कितने ही अभ्यस्त क्यों न हों, उसका बौन्साई रूप हमें चमत्कृत किए बिना नहीं रह सकता।

वास्तव में लघुता अवं विराटता का विवाद निर्मल है। दोनों का सह अस्तित्व ही यथार्थ है। विशालता जहाँ हमें सहज ही स्तंभित करती है, लघुता बहुधा हमें सोचने-समझने को विवश करते हुए, मन में कौतूहल जगाते हुए आह्लादित करती है। महत्त्व बस वस्तु में निहित गुणवत्ता का है।

साहित्य में लघु रचनाओं का अस्तित्व कोई नया नहीं है। जब ‘रामायण’ तथा ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्य रचे गए थे तब भी मंत्रों के रूप में जनसाधारण को प्रभावित करने वाली लघु रचनाएँ विद्यामान थीं....और मध्यकाल में जब ‘रामचरितमानस’ जैसे ग्रंथ रचे गए तब भी भजन, कवित्त आदि के रूप में लघु रचनाएँ साहित्यिक सुख प्रदान करती रहती थीं। ‘अणोरणायान् महतो महीयान्’ तथा ‘अरथ अमित अति आखर थोरे’ जैसे उक्तियों ने भी सदैव ही आकार को नकारते हुए अर्थ के महत्त्व को ही रेखांकित किया। फिर दोहे तथा वबरवै के रूप में भी साहित्य को सामर्थ्यवान् शैलियाँ मिलीं, जिन्होंने लघुता को और भी गरिमा प्रदान की।

इसी प्रकार गद्य के क्षेत्र में लघुकथा का जन्म हुआ, जिसमें संभवतः कहीं आधुनिक जीवन-शैली का भी योगदान रहा हो। हम माने न मानें, सच यह है कि आर्थिक उपलब्धियों के पीछे दीवानगी की सीमा तक भागते व्यक्ति के पास आज साहित्य जैसी वैचारिक संपदा के लिए समय घटता जा रहा है। इसके कारण की खोज हमें तर्कों के महासमर की ओर भले ही ले जाए, परंतु स्थिति को बदलने में सफल नहीं होगी। इस संदर्भ में वर्तमान पाठकों की रुचि सिमटकर फिल्मी गप्पों एवं रंगीन चित्रों तक सीमित होती चली जा रही है। पिछले दशक में अनेक अच्छी पत्रिकाओं का प्रकाशन पाठकों के अभाव में बंद हुआ। प्रकाशकों एवं संपादकों का विश्लेषण इस निष्कर्ष तक पहुँचा है कि अधिकतर पाठकों की रुचि व्यंग्य चित्रों, चुटकुलों, राशिफल आदि तक सीमित होती चली गई। इससे अधिक के नाम पर कुछ पाठक हैं जो राजनीतिक उठा-पटक, क्रिकेट अथवा फ़िल्म-समाचार जैसी चटपटी सामग्री स्वीकार कर सकते हैं।

स्पष्ट संकेत यह कि लोग, किसी भी क्षेत्र में, बस हल्का-फुल्का मनोरंजन ही चाहते हैं। कुछ ऐसी सामग्री, जिसमें कुछ सोचने-समझने का झंझट पाले बिना कम-से-कम समय में सुख प्राप्त हो जाए-किसी प्यासे को पानी पिलाने जैसा अथवा किसी भटके को राह दिखाने जैसा सुख नहीं, बस किसी को फिसलकर गिरते देखने जैसा सुख। जीवन-मूल्यों में यह अमूल्य परिवर्तन कैसे आया, यह जानने के साथ ही यह जानने का प्रयास भी आवश्यक है कि इस स्थित में सुधार हो तो कैसे हो ! लघुकथा की ओर मेरा रुझान भी एक परिस्थितिजन्य संयोग है...संभवतः एक समझौता भी। यथार्थ के धरातल पर पैर जमाने के लिए संघर्ष काल में, घर और दफ़्तर के उत्तरदायित्वों के बीच, साहित्य के लिए जब समुच्त समय निकालना कठिन लग रहा था, उन दिनों मस्तिष्क में आते–जाते कथानकों को पकड़ पाने के प्रयास में एक मध्यम मार्ग स्वयं मेरे हाथ लग गया। उन दिनों, समयाभाव एवं विरोधाभासी मानसिकता के कारण मन को झकझोरने वाले अनेक कथानक खो चुकने के बाद, मैंने प्रयत्न किया कि कथानक की मूल रूप रेखा संकेत के रूप में, अनुकूल अवसर आने पर विस्मरण के संक्रमण से सुरक्षित रखने के लिए, लिपिबद्ध करके रखी जाए। इस प्रयास में कुछ कथानक रूपरेखा के रूप में बच गए; यद्यपि उन्हें भी मनचाही कहानी के रूप में लिख पाने का सुख कभी नहीं मिला।  कभी पुराने काग़ज़ों के बीच में कोई रूपरेखा एक झलक दिखाती थी और समयाभाव में, भविष्य के किसी अनुकूल अवसर के भुलावे में, पुनः दफन हो जाती थी—ऐसा किसी नितांत सुरक्षित फाइल में जो कभी खोजने पर भी नहीं मिलती।

ऐसी ही कुछ संकेत रचनाओं को देखकर लगा कि अपनी रूपरेखा के रूप में ही उनमें कुछ सम्प्रेषणीयता है। बहुधा यह द्वंद्व भी रहता ही था कि कहानी का रूप किसी नए कथासूत्र को दिया जाए, जो उन दिनों मन पर हावी है, अथवा रूपरेखा के रूप में हाथ लगे किसी पिछले कथानक को। इस उहापोह में स्वतः ही एक समय वह आया होगा जब समझौते के रूप में मैंने जमा की हुई रूपरेखाओं को उन्हीं के नन्हें कलेवर में थोड़े बहुत संशोधन के साथ, प्रस्तुत करने का निर्णय लिया....और परिणामस्वरूप रूपायित हुईं व रूपरेखाएँ—लघुकथा के रूप में।

समयाभाव, संयोग और समझौते से जन्मी ये लघुकथाएँ आधुनिक व्यस्त जीवन-शैली के मारे हुए कुछ पाठकों को संवेदनशीलता एवं सोच के धरातल पर भी कुछ साहित्यिक सुख देती रही हैं, ऐसा मुझे कुछ संपादकों एवं पाठकों ने निरंतर संकेत दिया। उन प्रतिक्रियाओं से आश्वस्त होकर इन्हें पुनः एक संग्रह के रूप में प्रस्तुत करने का साहस मैं कर रहा हूँ।

इस संग्रह के ‘पुनरपि’ खंड की लघुकथाएँ मेरे पूर्व प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘कैसे-कैसे लोग’ से उद्धत हैं—इसके लिए अनुमति देकर उस संग्रह के प्रकाशक श्री श्रीकांत व्यास ने जो सहयोग दिया, उसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
जो बीत चुका वह सब एक लघुकथा जैसा ही लगता है...

जीवन के लिए जो राह दिखाई गई वह मन को नहीं भाई अव्यावहारिक मन ने नई ऊबड़-खाबड़ राहों पर बहुत भटकाया। परिवार संपत्ति के नाम पर जो आदर्श मिले थे उन्हें अपने कमज़ोर कंधों पर उठाए नया मार्ग खोजने को निकल पड़ा। ठोकरें, भटकन, एकाकीपन और कभी-कभी निराशा सब कुछ झेलना पड़ा। अब जीवन में देना-पावना को लेखा—जोखा का समय तो नहीं, पर जो कुछ भी है उसे अपना कह पाने का सुख अवश्य है। कहने को बहुत कुछ है। लिखने के लिए भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ हैं और उनकी तुलना में अब तक जो लिखा वह भी मात्र एक लघुकथा जैसा ही लगता है।
ये लघुकथाएँ पाठकों को सौंपते हुए जहाँ मुझे यह अनुभूति है कि, व्यस्तता अथवा प्रसाद के कारण, इन संभावना-सूत्रों की परिणति सामान्य कथाओं में नहीं हो सकी वहीं यह आशा भी है कि कहीं इनके बोन्साई कलेवर कथाप्रेमियों को वैचित्र्य का अतिरिक्त सुख प्रदान करेंगे और कहीं बीज के रूप में उनकी कल्पना के अनुरूप किसी कथा-संसार का सृजन करेंगे।

सीतेश आलोक

नुक़सान

मंगल बाबू के घर डाका पड़ा था। सारी नक़दी, बहुओं के ज़ेवर, चाँदी के बरतन आदि सभी सामान निकल गया। दोनों बेटों को चोट आई। वे अस्पताल में थे।

घर में मातम था। मंगल बाबू हथेली पर माथा टिकाए बैठे थे। आने-जानेवालों का ताँता लगा था। सभी सहानुभूति प्रकट करने के साथ ही पूछते थे कि नुक़सान का ! जो धन गया, वह तो शायद कभी मिल भी जाए, पर इसका क्या होगा ?’’ उनकी उँगली आँगन में घूमते अपने सात-आठ वर्षीय पोते की ओर उठ जाती थी।

अपने मुँह पर कपड़ा लपेटे लकड़ी के टुकड़े को पिस्तौल की तरह हाथों में ताने, वह सबके पास घूम-घूम कर कहता था, ‘‘हिलो मत ! गोली मार दूँगा ! गैने निकालो, नईं तो गली मार दूँगा।’’


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