जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
यह स्वाभाविक ही था कि तिलक के विरोधी उन्हें पाखण्डी, रूढिवादियों के नेता और प्रतिक्रियावादी बताएं। आवेश के समय अच्छे और बुरे का ज्ञान नहीं रहता, किन्तु आश्चर्य है कि यह आरोप कि तिलक प्रतिक्रियावादी थे, धीरे-धीरे केवल बार-बार दुहराने के कारण ही सत्य मान लिया गया है। उनकी जीवनी लिखनेवालों में न केवल कुछ भारतीयों ने ही इस आरोप को सत्य माना है, बल्कि हेनरिक क्रैमर और एमरी-डी-राइनकोर्ट जैसे विदेशी विद्वानों ने भी सारे संसार में इसकी चर्चा की है।
किन्तु यह आरोप निराधार है और तिलक की आत्मा के प्रति अन्याय है। जैसा कि मार्ले ने कहा है, समाज-सुधारक और राजनीतिज्ञ, दोनों ही समाज के पुनरूत्थान के लिए समान रूप से आवश्यक हैं। तिलक ने राजनैतिक सुधार को जो तरजीह दी थी, वह जानबूझकर ही। उनका विश्वास था कि राजनैतिक स्वतन्त्रता सभी सुधारों का मूल आधार है और यह विश्वास स्वतन्त्र भारत में हुए कार्य को देखकर उचित ही सिद्ध हुआ। उनका कहना है कि अन्य किसी भी विवादास्पद कार्यों में लगने से आदर्श उलझ जाएंगे और शक्ति का क्षय होगा। 1886 में 'केसरी' में तिलक ने न्यायाधीश श्री का० त्र्यं० तेलंग के एक व्याख्यान-'पहले कौन : सामाजिक सुधार या राजनैतिक सुधार?' पर एक जबर्दस्त लेख लिखा था। अपने व्याख्यान मे तेलंग ने इस विचार का, कि स्वतन्त्रता बिना समाजोन्नति के प्राप्त नहीं हो सकती, खण्डन किया था। उन्होंने कहा था कि ब्रिटेन की जनता, जिसने राजाओं के हाथ से सत्रहवीं शताब्दी में ही सत्ता छीन ली थी, उन्नीसवीं शताब्दी तक पिछड़ी रही, जब कि दूसरी ओर आयरलैण्ड, जहां सामाजिक स्थिति ब्रिटेन की ही भांति थी, बहुत दिनों तक ठीक भारत की तरह ही ब्रिटेन का गुलाम रहा। तिलक ने तेलंग के इस विचार से सहमति प्रकट की कि वर्तमान परिस्थितियों में राजनैतिक सुधार पर सामाजिक सुधार से अधिक बल दिया जाना चाहिए।
तिलक का समाज-सुधार से कोई विरोध न था, किन्तु वह यह नहीं चाहते थे, जो सुधार समाज की उन्नति के लिए किए जाने को हैं, वे
जबरन उसके गले लादे जाएं। 1890 में पूना में भाषण करते हुए उन्होंने कहा था-''आज समाज-सुधार की बड़ी चर्चा है। किन्तु हमें इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि हमें जनता को सुधारना है और यदि हम अपने को जन-समूह से अलग कर लेगे, तो कोई भी सुधार असम्भव होगा। इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण यह है कि यद्यपि विधवा-विवाह आवश्यक है, फिर भी बहुत-से समाज-सुधारक अपने परिवारों में इस पर अमल करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए मेरे विचार से हर एक आदमी पहले अपने को सुधारकर दूसरों के सामने एक उदाहरण रखे और उन्हें समाज-सुधार की प्रेरणा प्रदान करे, न कि केवल उपदेश-भर देता रहे। सुधार का उपदेश देनेवाले लोग पहले अपने उपदेशों का पालन स्वयं करें।''
यह एक विडम्बना ही थी, जो तिलक के सार्वजनिक जीवन के प्रथम कुछ वर्ष राजनैतिक संघर्ष में नहीं, बल्कि समाज-सुधार-विषयक विवाद में ही व्यतीत हुए। 1866 में रखमाबाई और दादाजी के बीच चले मुकदमे से लेकर 1901 के 'वेदोक्त काण्ड' तक इसके लिए कई अवसर भी मिले। रखमाबाई के मुकदमे से, जिसमें पति ने अपने विवाह-सम्बन्धी अधिकारों को पुनः मूल रूप में लाने के लिए अपील की थी लोगों में बड़ी सनसनी फैली। रखमाबाई का कहना था कि मेरा विवाह बिना मेरी स्वीकृति लिए दादाजी के साथ हुआ है। अतः मुझे उनके साथ जीवन-निर्वाह करने को बाध्य न किया जाए। यह तर्क हिन्दू-कानून के विरुद्ध था और उच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में हुए अधीनस्थ न्यायलय के फैसले को रद्दकर रखमाबाई के प्रति जग गई थी और उनकी सहायता के लिए एक निधि भी एकत्र की गई थी।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट