जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
'केसरी' में 1893 में तिलक ने हिन्दू-मुस्लिम द्वेष के विषय में अपने विचार स्पष्ट करते हुए जो लेख लिखे थे, उन पर दृष्टि डालना उचित होगा। उन्होंने साफ कहा था कि यदि ''सरकार हिन्दुओं का पक्षपात करेगी तो मुसलमान क्षुब्ध होंगे और यदि वह मुसलमानों का पक्ष लेगी तो हिन्दू उत्तेजित होंगे और इसी उत्तेजना से दंगे आरम्भ होंगे।'' मुसलमानों के रुख की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था :
''मुसलमानों ने जो दृष्टिकोण अपनाया है, वह असंगत है। यह कहना कि हिन्दू हर एक मस्जिद के पास किसी समय किसी भी प्रकार का गाना-बजाना न होने दें, एक अजीब मांग है और कोई भी समझदार व्यक्ति इसे नहीं मान सकता। मस्जिदों के सामने बाजा न बजाने की प्रथा अधिकतर स्थान विशेष में ही थी। अतः हम मुसलमान भाइयों से प्रार्थना करेंगे कि वे सुमधुर संगीत को भी बन्द करने की मांग न करें। यदि वे नमाज के समय संगीत नहीं सहन कर सकते तो वे किस प्रकार दुकानों, रेलगाड़ियों और जहाजों पर नमाज पढ़ते हैं?''
''और फिर उनके धर्मग्रन्थ के अनुसार तो हरेक मुसलमान के लिए, चाहे वह जहां भी हो, सूर्योदय, मध्याह्न और सूर्यास्त के समय भी नमाज पढ़ना लाजमी है। इसलिए यह कहना सरासर अनुचित है कि गाने-बजाने से नमाज में बाधा पड़ती है या मस्जिदों के सामने बाजा बजाना धर्म का अपमान है। ऐसे गलत विचार कुछ स्वार्थी और दुष्ट व्यक्तियों ने ही उनके मस्तिष्क में डाल दिए हैं। यदि मुसलमान थोड़ी समझ से काम लें तो मस्जिद के सामने बाजा बजाने की समस्या सरलता से सुलझ सकती है। वे सरकार के पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर न फूले। जब वास्तविक परीक्षा का समय आएगा, तब हिन्दू और मुसलमान, दोनों की हो समान रूप से उपेक्षा की जाएगी और दोनों ही उतनी ही निर्दयता से कुचल दिए जाएंगे।''
अतः तिलक ने सरकार से अपील की कि वह दोनों सम्प्रदायों के बीच निष्पक्षता बरते और उनके मनोमालिन्य को समाप्त करे :
''यदि कोई कट्टरपन्थी हिन्दू मुसलमानों के क्षेत्र में जाकर कसाई के हाथों से एक गाय को बचाने का प्रयत्न करता है तो वह निश्चय ही दण्ड का भागी है। इसी प्रकार यदि कोई मुसलमान कहे कि गणेश चतुर्थी के अवसर पर निकलनेवाले भक्तों के जुलुस से उसके नमाज में बाधा पड़ती है तो उसे समझना पड़ेगा कि यह अनुचित है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का उपदेश देते समय (बम्बई के गवर्नर) लार्ड हैरिस को अपने अधिकारियों को आदेश देना चाहिए कि वे दोनों सम्प्रदायों के बीच निष्पक्ष भाव रखें और एक को दूसरे के विरुद्ध भड़काने की चेष्टा न करें।''
यदि उस वक्त यह परामर्श सरकार ने मान लिया होता तो भारत उसके बाद के 54 वर्षों तक भाई-भाई की भयानक लड़ाई का शिकार न बनता जिसका अन्त आखिरकार हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन के रूप में सन 1947 में हुआ। लेकिन सरकार की फूट-नीति का बीजारोपण हो चुका था। इसी बीज ने बढ़ते-बढ़ते एक विष वृक्ष का रूप ले लिया। तिलक इस खतरे से पूर्णतः अवगत थे। यह उनके भाषणों और लेखों में बार-बार हुए 'तीसरे पक्ष' के उल्लेख से स्पष्ट होता है। इसी कारण मुसलमानों के प्रति उन्होंने बहुत यथार्थवादी और उदार रुख अपनाया था। देशबन्धु चित्तरंजन दास ने एक रोचक घटना का वर्णन किया है जिससे साम्प्रदायिक सवाल पर तिलक की दूरदर्शिता पर प्रकाश पड़ता है :
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट