जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक बाल गंगाधर तिलकएन जी जोग
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आधुनिक भारत के निर्माता
तीन महीने बाद अमरावती कांग्रेस के मंच से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने घोषणा की : ''देश की आंखों में आंसू हैं। मेरे हृदय में तिलक के लिए पूरी सहानुभूति है। भारतीय पत्रों की ओर से मैं कह सकता हूं कि हमें पूरा विश्वास है कि तिलक निर्दोष हैं।'' लगभग उसी समय देश से दूर ब्रिटेन में मौजूद दादाभाई नौरोजी ने कहा : ''समाचारपत्रों की जबान बन्द करना आत्महत्या है। तिलक पर मुकदमा चलाना बहुत बड़ी भूल है। ब्रिटिश सरकार जिन सिद्धान्तों पर आधारित है, उनका यह अतिक्रमण है।''
यहां तक कि ब्रिटिश पत्र 'डेली क्रानिकल' ने भी लिखा ''राजद्रोह का अभियोग सिद्ध करो और सिद्ध करो कि उसका इन अपराधों से सम्बन्ध है, और तब हम सब कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के पक्ष में होंगे। किन्तु जब लोकप्रिय उपाख्यानों के पात्रों के विषय में लिखित लोकगीतों और कविताओं को तोड़-मरोड़कर अभियोग सिद्ध करने की चेष्टा की जाती है तो हर कोई यह महसूस करता है कि सरकार बहुत ही खतरनाक रास्ते पर जा रही है। हमें विश्वास है कि न्यायाधीश स्ट्रेची की कानूनी व्याख्या इंग्लैंड में सहन नहीं की जाएगी और यदि उसे शीघ्र ही रद्द न किया गया तो भारत में इससे भारी उपद्रव उठ खड़े होंगे।''
सजा पाने से तिलक एकाएक राष्ट्रीय नेता बन गए और नतीजा यह निकला कि लोगों के मन में राजद्रोह का जो आतंक छाया हुआ था, वह जाता रहा। विदेशी हुकूमत के प्रति परवशता की भावना दूर हो गई। इससे आराम से घर बैठकर बड़ी-बड़ी बातें करनेवाले नेताओं का भी जमाना लद गया। इससे राष्ट्रीयता के एक नए युग का सूत्रपात हुआ। देशसेवा का मतलब अब बलिदान और त्याग-तपस्या से हो गया। देशभक्ति अब केवल भाषणों तक ही सीमित न रहकर 'हिम्मत से बढ़ो और करो' की भावना में लक्षित होने लगी।
सजा मिलने के तीन दिन बाद तिलक ने बम्बई उच्च न्यायालय से प्रिवी काउंसिल में अपील करने की अनुमति चाही। उच्च न्यायालय ने इस आधार पर उनकी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी कि इसमें न्याय का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है। लेकिन उसने यह माना कि 'अश्रद्धा' की जो व्याख्या न्यायाधीश स्ट्रेची ने 'श्रद्धा के अभाव' के रूप में की है, वह गलत है। इसके न्यायाधीश जस्टिस स्ट्रेची ने सूरी को सही निर्देश नहीं दिया था और यह अपील करने का पर्याप्त आधार था। बाद में प्रिवी काउंसिल में विशेष अपील की गई, पर उसे भी अस्वीकृत कर दिया गया। यह अपील एच. एच. एस्किवथ ने, जो बाद में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री हुए, तिलक की ओर से पेश की थी। न्यायाधीश स्ट्रेची के निर्णय से उत्पन्न अनिश्चितता के वातावरण का अन्त अगले वर्ष तब हुआ जब उसके अगले वर्ष भारतीय दण्ड विधान की धारा 144-क को संशोधित करके यह स्पष्टतः मान लिया गया कि 'अश्रद्धा' पद का अभिप्राय अराजभक्ति और शत्रुता की सारी भावनाओं से भी है।
साधारण अपराधी की भांति तिलक को कारावास के कठोर अनुशासन का पालन करना पड़ा। राजनैतिक कैदियों की श्रेणी की जानकारी उस समय किसी को न थी। फलतः राजद्रोह के अपराधियों को तो साधारण बन्दियों से भी अधिक कष्ट दिया जाता था। असहयोग आन्दोलन के समय हजारों की तादाद में जेलों को आबाद करने वाले राजनैतिक कैदियों को तो यह अनुमान भी नहीं हो सकता कि तिलक को क्या-क्या कष्ट झेलने पड़े थे। उन्हें चटाई बनाने के लिए नारियल के छिलके साफ करने का काम दिया गया। लेकिन उन्होंने इसके साथ ही ऐसे ही अन्य कई काम भी प्रसन्नतापूर्वक किए। वह केवल जेल का रूखा भोजन न कर पाते थे जिसका परिणाम यह निकला कि मात्र चार महीनों में ही उनका वजन बड़ी तेजी से 135 पौंड से घट कर 105 पौंड हो गया।
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- अध्याय 1. आमुख
- अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
- अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
- अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
- अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
- अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
- अध्याय 7. अकाल और प्लेग
- अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
- अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
- अध्याय 10. गतिशील नीति
- अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
- अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
- अध्याय 13. काले पानी की सजा
- अध्याय 14. माण्डले में
- अध्याय 15. एकता की खोज
- अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
- अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
- अध्याय 18. अन्तिम दिन
- अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
- अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
- परिशिष्ट