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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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आधुनिक भारत के निर्माता

जो जेल में तिलक से मिलने जाते थे, उन्हें देखकर सन्देह होता था कि ऐसी हालत में वह कैद की अवधि भी पूरी कर सकेंगे या नहीं। उनके एक कानूनी परामर्शदाता एस. एस. सेतसुर ने लन्दन के हावर्ड असोसिएशन के सामने यह बात रखी। यह संस्था जेल-सुधार का काम करती थी। पहले तो इसके महा मन्त्री के प्रथम अभ्यावेदन पर सरकारी अफसरों ने कोई ध्यान ही नहीं दिया, लेकिन बाद में जब उन्होंने यह चेतावनी दी कि तिलक की मृत्यु के परिणाम अत्यन्त भयंकर होंगे तब इस चेतावनी का कुछ अनुकूल प्रभाव पड़ा।

बम्बई में महामारी फैलने के बाद सरकार तिलक को पूना के यरवदा जेल में स्थानान्तरित करने के लिए बाध्य हुई। बम्बई जेल में ही दूसरे कैदियों को विश्वस्त करने के लिए तिलक ने प्लेगनिरोधक टीका लगवाया, यद्यपि यह टीका उन दिनों अभी अपनी प्रयोगात्मक अवस्था में ही था। पूना जेल में पहुंचने के बाद उनके साथ अच्छा व्यवहार किया जाने लगा, भोजन भी पहले से अच्छा दिया जाने लगा। इसका श्रेय हावर्ड असोसिएशन को ही था। उन्हें कुछ पुस्तकें भी पढ़ने को दी जाने लगीं। वह अपने जिम्मे सौंपे धागे रंगने के काम में भी रुचि लेने लगे। इसी बीच प्रोफेसर मैक्समूलर से भेट-स्वरूप ऋग्वेद की एक प्रति पाकर तिलक बहुत प्रसन्न हुए। मैक्समूलर उनकी 'ओरियन' नामक पुस्तक पढ़कर उनकी विद्वता से बहुत प्रभावित थे।

यरवदा में तिलक ने अपने प्रिय विषयों वेदों और आर्य सभ्यता के पुरातनत्व का अध्ययन जारी रखा। पांच वर्ष पश्चात प्रकाशित उनकी पुस्तक 'दि आर्कटिक होम इन दि वेदाज' का आधार यही अध्ययन था। जेल से छूटने पर उन्होंने अपने एक मित्र को बतलाया कि एक रात एक वैदिक मन्त्र का अर्थ समझने पर उन्हें कितनी प्रसन्नता हुई थी। यह मन्त्र उनके शोध-कार्य के लिए महत्वपूर्ण था। मित्र ने पूछा, ''जेल में प्रसन्नता कैसी?'' तिलक का जवाब था : ''यह बिना जेल गए तुम नहीं समझ सकते।''

दामोदर चाफेकर के अनुरोध पर, जो यरवदा जेल में रैंड की हत्या के अपराध में फांसी पानेवाले थे, तिलक ने उन पर दया करने के लिए एक याचिका भेजी जो अस्वीकृत कर दी गई। हो सकता है, इन दोनों को एक जेल में रखकर परस्पर एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने की अनुमति देने के पीछे सरकार की कोई बुरी नीयत रही हो, लेकिन वह दोनों में कोई सम्बन्ध न पा सकी। तिलक ने अपनी 'गीता' की प्रति चाफेकर को दे दी जिसे लेकर वह फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी जा फूले। तदुपरांत तिलक ने हिन्दू विधि से उनके दाहसंस्कार का प्रबन्ध किया।

इस बीच तिलक को रिहा करने के लिए ब्रिटेन और भारत में आन्दोलन चल पड़ा था। प्रोफेसर मैक्समूलर भी तिलक की रिहाई चाहते थे। अतः यह आन्दोलन काफी तीव्र हुआ। ब्रिटेन की महारानी को एक स्मरणपत्र भेजा गया जिसमें सात कारणों से तिलक को दयापूर्वक रिहा करनेकी अपील की गई थी। यह स्मरणपत्र भेजनेवालों में सर विलियम हण्टर, सर रिचर्ड गार्थ, दादाभाई नौरोजी, र० च० दत्त और प्रोफेसर मैक्समूलर भी थे। स्मरणपत्र में कहा गया था कि तिलक की रिहाई का जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।

सरकार आन्दोलन को रोकने में असमर्थ थी, किन्तु साथ ही वह तिलक को बिना किसी शर्त के छोड़ना नहीं चाहती थी। अतः उसने दो शर्तों पर उन्हें रिहा करने की इच्छा व्यक्त की-एक तो यह कि रिहाई के बाद वह अपने स्वागत-सामरोहों में भाग न लें और दूसरा यह कि वह अपने किसी कार्य, भाषण अथवा लेखन के रूप में ऐसा कुछ न करें जिससे लोगों के मन में सरकार-विरोधी भावनाएं उत्पन्न हों। पहली शर्त तो तिलक ने सहर्ष स्वीकार कर ली, क्योंकि उन्हें किसी प्रकार का प्रदर्शन प्रिय न था, किन्तु दूसरी शर्त उन्होंने अस्वीकार कर दी, क्योंकि उसका मतलब उनके राजनैतिक जीवन का अन्त ही था।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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