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जीवनी/आत्मकथा >> बाल गंगाधर तिलक

बाल गंगाधर तिलक

एन जी जोग

प्रकाशक : प्रकाशन विभाग प्रकाशित वर्ष : 1969
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 16196
आईएसबीएन :000000000

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लम्बी समझौतावार्ता के बाद तिलक ने दूसरी शर्त के स्थान पर यह प्रस्ताव किया कि यदि फिर कभी वह राजद्रोह के अपराध में सजा पाएं तो छः महीनों की व्यतीत न हुई कैद की यह अवधि उनकी उस सजा में जोड़ दी जाए। अपमानजनक शर्त को न मानने में उन्होंने जो दृढ़ता दिखलाई, वह उनकी विशिष्टता का द्योतक थी। वास्तव में विचारण (ट्रायल) आरम्भ होने के पूर्व भी 'अमृत बाजार पत्रिका' के सम्पादक मोतीलाल घोष-सहित उनके कई मित्रों ने उन्हें सलाह दी थी कि वह सरकार से क्षमा याचना करके कारावास-दण्ड से, जो निश्चित-प्राय है, बच जाएं। मगर तिलक ने उन्हें उत्तर दिया था :

''दूसरा पक्ष मुझसे यही चाहता है कि मैं अपना अपराध स्वीकार कर लूं। लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं। जनता के बीच मेरा जो स्थान बना है, वह मेरे चरित्र के कारण ही बना है। इसलिए अगर मैं अभी ही मुकदमे से डर गया तो मैं समझता हूं कि मेरे लिए महाराष्ट्र और अन्दमान द्वीप में रहने की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है-दोनों समान हैं। जहां तक मुकदमे का सम्बन्ध है, मुझे बस केवल ऐसे जूरी से ही डर है जिसे भलीभांति न तो मराठी भाषा का और न ही कानून व न्याय का ज्ञान हो। फिर भी यदि आप सब की ऐसी ही सलाह है तो मैं केवल इतना ही कहने को तैयार हूं कि 'मैं नहीं समझता कि मेरे लेख राजद्रोहात्मक हैं, किन्तु यदि सरकार के परामर्शदाता उन्हें अन्यथा समझते हैं तो मुझे इसके लिए दुख है।' किन्तु इससे सरकार का समाधान नहीं होगा। उसका उद्देश्य तो पूना के नेताओं का दमन करना है, लेकिन मैं बता दूं कि 'यहां कुम्हड़ बतिया कोउ नाहीं जो तर्जनी देखि डर जाहीं।' मैं गोखले नहीं जो डर जाऊं। और फिर आप सबको यह नहीं भूलना चाहिए कि हम सब जनता के सेवक हैं। अतः ऐसे कठिन अवसर पर हम सब हिम्मत खो बैठेंगे तो जनता के प्रति हमारा यह विश्वासघात होगा।''

तिलक ने जो प्रस्ताव रखा था, उससे उनके व्यक्तिगत या सार्वजनिक जीवन पर किसी प्रकार की भी आच नहीं आती थी और बम्बई सरकार ने उसे स्वीकार भी कर लिया। 6 सितम्बर, 1898 को नौ बजे रात वह रिहा कर दिए गए, किन्तु इतने दिनों की कैद में उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया था। बस शरीर में हड्डियों का ढांचा मात्र शेष था। उनके भतीजे के शब्दों में ही सुनिए : ''जब वह घर लौटे तो केवल हड्डियों का ढांचा मात्र शेष था-आंखें धंसी हुई, गाल पीले व पिचके हुए और चलने में निःशक्त पांव डगमगाते हुए।''

समय से पहले ही उनके रिहा होने का समाचार सुनकर लोगों को बड़ा हर्ष हुआ। सारे पूना में धूम मच गई और उनके घर लौटने के एक घंटे के भीतर-भीतर सैकड़ों व्यक्ति वहां इकट्ठा हो गए। अगले दिन तो उनकी संख्या हजारों तक पहुंच गई। बधाई के पत्र और तार देश के कोने-कोने से आने लगे। र० च० दत्त ने, जो उस समय इंग्लैण्ड में थे, लिखा : ''आपने जो कष्ट झेले हैं, उन्हें याद करने से मेरे हृदय में जो भावनाएं उठती हैं, उन्हें मैं व्यक्त नहीं कर सकता। आपने अपने अन्दर जिस साहस और कष्ट-सहन की शक्ति का परिचय दिया है, वह स्तुत्य है। मुझे इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, उसका प्रभाव चिरस्थायी रहेगा। आपके प्रयत्न कभी विफल नहीं होंगे। उनके सुपरिणाम निकलेंगे ही। आपके कष्ट प्रताप से यह राष्ट्र विजयी बनेगा।''

विजय अभी बहुत दूर थी। अब तात्कालिक आवश्यकता यह थी क उनका स्वास्थ्य सुधरे और इसके लिए वह अपने परिवार के साथ अपने प्रिय पहाड़ी स्थान-सिंहगढ-को गए।

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    अनुक्रम

  1. अध्याय 1. आमुख
  2. अध्याय 2. प्रारम्भिक जीवन
  3. अध्याय 3. शिक्षा-शास्त्री
  4. अध्याय 4. सामाजिक बनाम राजनैतिक सुधार
  5. अध्याय 5 सात निर्णायक वर्ष
  6. अध्याय 6. राष्ट्रीय पर्व
  7. अध्याय 7. अकाल और प्लेग
  8. अध्याय ८. राजद्रोह के अपराधी
  9. अध्याय 9. ताई महाराज का मामला
  10. अध्याय 10. गतिशील नीति
  11. अध्याय 11. चार आधार स्तम्भ
  12. अध्याय 12. सूरत कांग्रेस में छूट
  13. अध्याय 13. काले पानी की सजा
  14. अध्याय 14. माण्डले में
  15. अध्याय 15. एकता की खोज
  16. अध्याय 16. स्वशासन (होम रूल) आन्दोलन
  17. अध्याय 17. ब्रिटेन यात्रा
  18. अध्याय 18. अन्तिम दिन
  19. अध्याय 19. व्यक्तित्व-दर्शन
  20. अध्याय 20 तिलक, गोखले और गांधी
  21. परिशिष्ट

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